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माल देशी, मालिकाना विदेशी

इकलौते तथ्य से सत्य नहीं निकल सकता. लेकिन अनेक तथ्यों को साथ मिला कर सत्य की समग्र तसवीर बनायी जा सकती है. मसला है देश के व्यापक आर्थिक विकास और रोजगार सृजन का. यह मसला केंद्र या राज्य सरकारों के लिए ही नहीं, देश के हर अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष या बच्चे, बूढ़े व नौजवान के लिए […]

इकलौते तथ्य से सत्य नहीं निकल सकता. लेकिन अनेक तथ्यों को साथ मिला कर सत्य की समग्र तसवीर बनायी जा सकती है. मसला है देश के व्यापक आर्थिक विकास और रोजगार सृजन का. यह मसला केंद्र या राज्य सरकारों के लिए ही नहीं, देश के हर अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष या बच्चे, बूढ़े व नौजवान के लिए बेहद अहम है. आर्थिक विकास और रोजगार सृजन के इस मसले को सुलझाने के चार आधारभूत कारक हैं- जमीन, श्रम, पूंजी और उद्यमशीलता.
इसमें से तीन कारक हमारे पास भरपूर हैं. जमीन की कोई कमी नहीं. दुनिया में सातवीं सबसे ज्यादा जमीन हमारे पास है. कृषि भूमि में दुनिया में अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा जमीन हमारे पास है. चीन हमसे पीछे है. श्रम में तो हमारी 65 प्रतिशत आबादी की उम्र 35 साल से कम है. साल 2020 तक 29 साल की औसत उम्र के साथ हम दुनिया के सबसे युवा देश होंगे. उद्यमशीलता में हम भारतीयों का जवाब नहीं. ज्यादा पढ़े-लिखे लोग ही नौकरियों के चक्कर में पड़ते हैं. संगठित क्षेत्र में नौकरी करनेवालों की संख्या मात्र 6 प्रतिशत है. बाकी 94 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में नौकरी या काम-धंधा करते हैं. अब बचता है आखिरी कारक पूंजी, जिसे विदेश से लाने के लिए सरकार परेशान है. वैसे, असल में इसकी भी कोई कमी देश में नहीं है.
हर राज्य अपने-अपने स्तर पर विदेशी निवेशकों को लुभाने में लगा है. मंत्री-मुख्यमंत्री इस चक्कर में विदेश के दौरे कर आते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं का भी यह एक जरूरी थीम रहता है. पिछले दिनों सरकार ने अर्थव्यवस्था के नौ क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) के लिए पूरा खोल दिया. इसमें डिफेंस से लेकर नागरिक उड्डयन, दवा, सिंगल ब्रांड रिटेल और पशुपालन उद्योग तक शामिल है. खास बात यह है कि सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 प्रतिशत एफडीआइ की मंजूरी पहले से मिली हुई थी. लेकिन अब विदेशी कंपनी को तीन साल तक अनिवार्य स्थानीय खरीद की शर्त से मुक्त कर दिया गया है. क्या-क्या कहां और कितना खोला जाये, इसके ब्योरे में न पड़ कर बस इतना बताना काफी है कि इस फैसले के बाद खुद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अब भारत विदेशी पूंजी के मामले में दुनिया का संभवतः सबसे खुला देश बन गया है.
हो सकता है कि खुला बनना अत्याधुनिक वैश्विक अर्थनीति का कोई नया नैतिक मानदंड हो. लेकिन, उससे ज्यादा अहम बात उद्योग व वाणिज्य मंत्री निर्मला सीतारमण ने कही कि देश में एफडीआइ आने से बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा. हालांकि, उन्होंने इसका कोई तार्किक या तथ्यात्मक आधार नहीं प्रस्तुत किया है. आज हमें इसी सत्य की परख करनी है.
इस सिलसिले में तीन तिथियों के तीन घटनाक्रमों या तथ्यों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा. पहला, बीते 20 जून को केंद्र सरकार ने देश के नौ अहम क्षेत्रों में एफडीआइ की शर्तों को पहले से ज्यादा उदार बना दिया. दूसरा, 21 जून को तेलंगाना की टेक्सटाइल व स्पिनिंग मिलों ने घोषणा की कि वे तमिलनाडु की तरह हफ्ते में अपनी मिलें दो दिन बंद रखेंगी.
इसकी वजह कपास की तंगी है. उनके एसोसिएशन का कहना था कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने व्यापारियों के साथ मिल कर 50 लाख गांठ कपास की जमाखोरी कर रखी है. इससे कपास के दाम 5,000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गये हैं. हालांकि, इससे किसानों को कोई लाभ नहीं मिल रहा. ऊंचे आयात शुल्क, परिवहन लागत और समय ज्यादा लगने से ये मिलें कपास का आयात भी नहीं कर पा रही हैं. उन्होंने केंद्र राज्य सरकार दोनों से समस्या का समाधान करने की गुहार की.
तीसरा तथ्य. केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 22 जून को इसी टेक्सटाइल क्षेत्र के लिए 6,000 करोड़ रुपये के विशेष पैके़ज की घोषणा कर दी. सरकार ने दावा किया है कि इससे न केवल रोजगार के एक करोड़ नये अवसर पैदा होंगे, बल्कि देश में 11 अरब डॉलर का विदेशी निवेश आयेगा और हम 30 अरब डॉलर की कमाई निर्यात से कर सकेंगे. मालूम हो कि टेक्सटाइल क्षेत्र देश में कृषि के बाद सबसे ज्यादा रोजगार देनेवाला उद्योग रहा है. लेकिन पिछली सरकारों की अदूरदर्शी नीतियों की वजह से यह धीरे-धीरे बीमार उद्योग बनता गया. कपड़ों के निर्यात में हम चीन ही नहीं, बांग्लादेश और वियतनाम तक से पटखनी खाने लगे हैं. जमीनी स्तर पर मौजूदा सरकार की नीति की झलक हम तेलंगाना की मिलों की स्थिति के दूसरे तथ्य से पा सकते हैं.
इन तीनों तथ्यों को मिला कर एफडीआइ से रोजगार पैदा होने के सत्य की एक झलक मिल जाती है. ध्यान देने की बात यह है कि एफडीआइ का डंका मौजूदा सरकार ही नहीं बजा रही. इसका सिलसिला 25 साल पहले 1991 में तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने लंदन में भारत की बंद अर्थव्यवस्था को विदेशी पूंजी के लिए खोलने की घोषणा के साथ शुरू किया था. कहां-कहां विदेशी पूंजी के लिए पलक पांवड़े बिछाये गये हैं, यह तथ्य जान कर आप हैरान रह जायेंगे. चार साल पहले यूपीए सरकार के समय का रिजर्व बैंक का सर्कुलर बताता है कि कृषि क्षेत्र में फ्लोरीकल्चर, हॉर्टीकल्चर, बीजों के विकास, कृत्रिम मछली पालन, एक्वाकल्चर, पशुपालन, सब्जियों व मशरूम की खेती और कृषि व संबद्ध क्षेत्रों की सेवाओं को ऑटोमेटिक रूप से 100 प्रतिशत एफडीआइ के लिए खोला जा चुका है. उसी सर्कुलर में है कि दवाओं व फार्मास्युटिकल्स में ऑटोमेटिक रूप से शत-प्रतिशत एफडीआइ की इजाजत मिली हुई है.
आप कहेंगे कि एफडीआइ आने में बुराई क्या है? इसे यूं समझिये कि आपके पास पांच एकड़ जमीन है. उसे खरीद कर कोई विदेशी कंपनी फूलों की खेती शुरू कर देती है.
शत-प्रतिशत पूंजी उसकी है, तो उस पर जो भी मुनाफा होगा, वह उसका होगा, क्योंकि वही उसकी मालिक है. ध्यान दें कि देशी या विदेशी पूंजी का मूल मकसद रोजगार देना नहीं, बल्कि अपने मुनाफे को अधिकतम करना होता है. फिर भी वह कंपनी उसी खेत में आपसे सीजन-सीजन मजदूरी करवाती है. विदेशी पूंजी ने इस तरह रोजगार के अवसर भी पैदा कर दिये. लेकिन इस चक्कर में न तो मुनाफा आपका रहा और न ही मालिकाना.
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम.काॅम
anil.raghu@gmail.com

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