।। अवधेश कुमार।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
सुनंदा पुष्कर की दिल्ली के एक होटल में रहस्यमयी हालात में मृत्यु ऐसी दुखद खबर है, जिसका सच जानने की अभिरुचि एक बड़े वर्ग में है. केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी होने के अलावा सुनंदा की अपनी पहचान भी रही है. इस नाते मीडिया उस खबर की छानबीन करे, तो इसमें सामान्यत: आपत्ति का कोई कारण नजर नहीं आयेगा. किंतु क्या यह भारत के लिए इतनी बड़ी घटना है कि इसके लिए अन्य सारी घटनाओं को हाशिये पर डाल दिया जाये? 17 जनवरी की रात्रि में इस खबर के सामने आने के बाद से तो ऐसा ही हुआ.
17 जनवरी को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का सम्मेलन था और मीडिया का फोकस उस पर था. उसके बाद 18 जनवरी को भाजपा की राष्ट्रीय परिषद का पहला दिन था, पर उसकी चरचा ऐसे हुई, मानो वह अत्यंत छोटी घटना हो. सुनंदा की मृत्यु के संदर्भ में अगर कोई प्रगति थी तो इतनी कि उनके शव का पोस्टमार्टम और दाह-संस्कार हो गया, थरूर को अस्पताल में भरती होना पड़ा, परंतु अनंत कथा की तरह एक ही बात बार-बार बतायी जाती रही. अगर एक दिन में भारत में हुई ऐसी मौतों, हत्याओं या आत्महत्याओं का आंकड़ा ही उठा लिया जाये तो यह संख्या काफी बड़ी होगी, पर सुनंदा की मौत सब पर भारी. इतनी भारी कि भाजपा की कार्यकारिणी तो छोड़िए, दिल्ली में ठंड से एक दर्जन लोगों की मौत भी महत्वपूर्ण नहीं, मुंबई में बोहरा समुदाय के धर्मगुरु सैयदना की अंतिम यात्र में कुचलकर हुई मौतों की त्रसदी भी इससे छोटी. असम के कोकराझाड़ में उग्रवादियों द्वारा बस से उतार कर हिंदीभाषियों की हत्या, दिल्ली सरकार और पुलिस के बीच तनाव आदि जैसे कई अहम समाचार नेपथ्य में डाल दिये गये. क्यों? इस पर विचार होना चाहिए.
कुछेक चैनलों ने बीच-बीच में मुंबई से संवाददाताओंको लाइव ले लिया, या भाजपा कार्यकारिणी से एकाध टिप्पणी ले ली, अन्यथा सुनंदा महाकथा और पाकिस्तानी पत्रकार मेहर तरार के साथ ट्वीटर के संवाद ही चलते रहे. यह कहना ठीक नहीं है कि ऐसी पत्रकारिता को लोग नहीं देखते, लेकिन वे किस मानसिकता से देखते हैं, उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है और कुल मिलाकर इसका भारतीय समाज पर कैसा सामूहिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है, इसका आकलन किया जाये तो ऐसी पत्रकारिता पर कई सवाल उठेंगे. पर यह आकलन करेगा कौन?
कोई नहीं कहता कि आप ऐसी खबरों को मत दिखाइये, किंतु उसे कितना समय या जगह मिले, इसका मूल्यांकन तो ईमानदारी और विवेक से हो. अब तक यह भी स्थापित नहीं हुआ कि थरूर की मेहर तरार के साथ वाकई इतनी अंतरंगता हो गयी थी कि वे अपनी पत्नी को छोड़ने की सीमा तक चले जाएं. पर इसे किस तरह दिखाया जाता रहा उस पर विचार करिये. ट्वीटर के अलावा सुनंदा का ऑन रिकॉर्ड इंटरव्यू है, जिसमें वह उसे आइएसआइ का एजेंट बतातीं हैं, उसे अपने पति से दूर रहने की हिदायत देती हैं, भला-बुरा कहती है और अंत में यह भी कि उसके और पति के बीच इतने गहरे रिश्ते हैं कि वह टूट नहीं सकता.
पत्रकारिता का महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि हम किसी घटना या समाचार को किस नजरिये से प्रस्तुत करते हैं. सबसे पहले तो ऐसी दुखद घटनाओं में संवेदनशीलता का अंश हमेशा प्रबल होना चाहिए. इस घटना के मूल में एलीट वर्ग की वह जीवनशैली है, जिसमें संबंधों की नैतिकता और विश्वसनीयता का स्वाभाविक क्षरण हुआ है. पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका एक-दूसरे को हर क्षण संदेह की नजर से देखते हैं. कारण, उस समाज में ऐसी अविश्वसनीयता बढ़ रही है. एक पत्नी अपने पति के किसी स्त्री के साथ मेल, फोन और ट्वीट से इतना विचलित हो जाती है कि उसे दुनियाभर की नजरांे में ला देती है. वह व्यक्ति भी मेल, फोन और ट्वीट करते समय यह नहीं सोचता कि सार्वजनिक व्यक्तित्व होने के नाते किसी विदेशी या देसी औरत के साथ संबंधों या संवादों की सीमाएं हैं. कारण, उसका दूसरा व्यक्तित्व उस समाज का है जहां यह स्वाभाविक है. सुनंदा शराब और सिगरेट को अपना साथी बनाए हुए थीं. क्यों? यह भी उस समाज का स्वाभाविक चरित्र है, जहां अवसाद का पुट बढ़ रहा है. तो पत्रकारिता की भूमिका ऐसी जीवनशैली की भयावहता को उजागर कर अपने दर्शकों और पाठकों को उससे सचेत करना भी होना चाहिए. पर सनसनी बनाने की कोशिशों के बीच यह दृष्टिकोण बिल्कुल गायब है.
संसदीय लोकतंत्र में पत्रकारिता की भूमिका जनता तक सही सूचना और विचार पहुंचा कर स्वस्थ जनमत के निर्माण की है. यह तभी होगा जब मीडिया व्यापक जनहित के समाचार को पहचान कर उसे प्रसारित-प्रकाशित करे, उस पर बहस कराये और फिर जनता को सही दिशा में सोचने और मत बनाने के लिए प्रेरित करे. यदि मीडिया का कोई अंग इस जिम्मेवारी को निभाने में चूक रहा है, तो दर्शकों और पाठकों को इसके प्रति सचेत होना चाहिए. जनदबाव से इसमें सुधार लाया जा सकता है.