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नये विकास मॉडल की तलाश में बेचैन दुनिया!

-हरिवंश- अर्थसंकट का यह विश्वव्यापी दौर, अमरीकी पूंजीवाद के अंत का प्रतीक है? पिछले डेढ़ महीने से इस सवाल पर दुनिया के जानेमाने विचारक, विश्लेषण में डूबे हैं. न्यूजवीक (अक्टूबर 20, 2008) मानता है कि यह संकट 1907 और 1929 की तरह ही बड़ा, व्यापक और गंभीर है. मंदी और अर्थसंकट का वह अतीत, अब […]

-हरिवंश-

अर्थसंकट का यह विश्वव्यापी दौर, अमरीकी पूंजीवाद के अंत का प्रतीक है? पिछले डेढ़ महीने से इस सवाल पर दुनिया के जानेमाने विचारक, विश्लेषण में डूबे हैं. न्यूजवीक (अक्टूबर 20, 2008) मानता है कि यह संकट 1907 और 1929 की तरह ही बड़ा, व्यापक और गंभीर है. मंदी और अर्थसंकट का वह अतीत, अब इतिहास नहीं, वर्तमान बन गया है. द इकोनामिस्ट (18-24 अक्टूबर 08) में उदृत एक चीनी नेता की टिप्पणी है, द टीचर्स हैव सम प्राबलम्स (दुनिया को पाठ पढ़ानेवाले, कुछ समस्याओं से घिरे हैं). चीन के जानेमाने अर्थशास्त्री सू यांग डिंग ने कहा है, ‘अमरीका चीन के लिए मॉडल रहा है.

अब इसने अपने लिए भारी मुसीबतें खड़ी कर ली है (द इकोनामिस्ट, 11-17 अक्टूबर 08). डेढ़ सौ वर्ष पुराना लेस्-ए-फे-अ् (पूंजीवाद का बुनियादी दर्शन) खतरे में है. लेस्-ए-फे-अ् यानी अहस्तक्षेप की नीति. प्रतियोगिता, स्पर्धा, आपसी होड़ एवं मुकाबले से समाज आगे बढ़ता है, यह इस दर्शन की बुनियाद में है. आशय यह है कि सरकार, उद्योग, व्यवसाय और बाजार में हस्तक्षेप न करे. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने हाल के इस संकट के संदर्भ में कहा लेस्-ए-फे-अ् इज फिनिस्ड अर्थात अहस्तक्षेप की नीति का अंत हो गया है. अमरीकी अर्थव्यवस्था में जो आंतरिक विस्फोट हुआ, उससे पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है.

एक दिन में अमरीकी स्टॅाक मार्केट को एक ट्रिलियन डालर (49 लाख करोड़ रूपये) का नुकसान हुआ. अमरीकी वित्तीय संस्थाओं को 700 बिलियन डालर (34.5 लाख करोड़ रूपये) सरकार को राहत पैकेज देनी पड़ी. याद रखिए, भारत का कुल विदेशी मुद्रा भंडार है, 274 बिलियन डालर (13.426 लाख करोड़ रूपये). इससे दोगुना से अधिक राशि अमरीका को बेल आउट पैकेज (संकट से उबारने की रणनीति) में झोंकना पड़ा है. फिर भी यह राशि बहुत कम मानी जा रही है. आज अमरीका पर कुल कर्ज है 10.2 ट्रिलियन डालर. इससे ही अमरीकी अर्थसंकट की झलक मिल सकती है.

अमरीका से शुरू इस आर्थिक कंपन या भूकंप के झटके दुनिया के लगभग सभी देशों-बाजारों को लगे हैं. भारत के प्रधानमंत्री ने भी चेतावनी दी है कि हम आर्थिक मंदी और अर्थ संकट के दौर में हैं. अमरीकी शेयर बाजार में यह कृत्रिम उतार-चढ़ाव, लोभी बाजार का खेल था. पूंजीवाद में लोभ की निर्णायक भूमिका है. बारेन बफेट ने कहा है,‘ सामूहिक नाश के ये वित्तीय हथियार हैं’. भारत में उदारीकरण के ठीक बाद, तब इसके एकमात्र विरोधी चंद्रशेखर ने लोकसभा में चेतावनी दी थी. बाजार की होड़ वाली व्यवस्था को भारत में न निमंत्रित करें. भारत, करूणा का देश है.

उनका मशहूर वाक्य था, करूणा और बाजार में संगत नहीं हो सकती. बाजार, करूणा और संवेदना को पहले खत्म करता है. भारत के शेयर बाजार में भी यही हालात हैं. शेयर बाजार में सब कुछ लुटा कर अनेक लोग आत्महत्या कर रहे हैं, भारत में भी, अमरीका में भी. इस अर्थसंकट ने भारी तबाही मचायी है. लोग इसे आर्थिक सुनामी के नाम से पुकार रहे हैं.

क्या यह संकट पूंजीवादी विकास माडल का अंत है? द इकोनामिस्ट मानता है कि पूंजीवाद इस संकट से भी उबर आयेगा. पहले की तरह. पत्रिका की दृष्टि में पिछले डेढ़ सौ वर्षों में पूंजीवादी आर्थिक विकास मॉडल ने ऐसे अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं. पर पूंजीवादी दुनिया का ही एक विशिष्ट वर्ग है, जिसकी मान्यता है, 1917 में रूस में जन्मा साम्यवाद जैसे ’90 के दशक में आकर खत्म हो गया, वैसे ही यह पूंजीवाद का अंत है. हालांकि 1980 में जिस दिन चीन ने विकास का नया (पूंजीवादी) माडल अपना लिया, उस दिन दुनिया को विकल्प के रूप में आर्थिक विकास और प्रबंधन का एक नया माडल मिला, ‘साम्यवादी पूंजीवादी माडल’. पूंजीवाद के चेहरे को लेकर ताजा धारणा है कि यह दो प्रकार का है.

पहला, सर्वसत्तावादी पूंजीवादी प्रणाली (अथारिटेरियन कैपिटलिजम) जैसे चीन और सिंगापुर. दूसरा, लोकतांत्रिक पूंजीवादी प्रणाली (डेमोक्रेटिक कैपिटलिजम) जैसे अमरीका, यूरोप. इस विषय पर ‘द फ्यूचर आफ कैपिटलिजम्’ (न्यूजवीक,13 अक्टूबर 08. पूंजीवाद का भविष्य) बहस में फ्रांसिस फूकियामा ने गहराई से मंथन किया है. उनके लेख का शीर्षक है, ‘द फाल आफ अमेरिका-इंका’ (अमरीकी निगम का पतन).

इस लेख का मूल स्वर है कि पूंजीवाद का एक खास विजन या कहें ब्रांड खत्म हो चुका है. फूकियामा की नजर में आज सबसे बड़ी चुनौती है कि हम (अमरीका) कैसे अपनी विश्वसनीयता अर्जित करें? फूकियामा इन दिनों दुनिया के मशहूर संस्थान (जॉन हौपकिंस स्कूल ऑफ एडवांस्ड इंटरनेशनल स्टडीज) में इंटरनेशनल पॉलिटिकल इकोनामी (अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थप्रणाली) के प्रोफेसर हैं. मौलिक ढंग से सोचन के लिए वह मशहूर हैं. रूस के बिखरने और साम्यवादी मॉडल ढहने के बाद उनकी चर्चित पुस्तक आयी थी, ‘द इंड आफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’.

उनकी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक थी ‘ट्रस्ट’. इसके अतिरिक्त भी उनकी रचनाएं हैं, जो बहस, विचार और अनूठेपन के लिए जानी जाती है. न्यूजवीक के अपने लेख में फूकियामा मानते हैं, अमरीका की सबसे महत्वपूर्ण थाती है, विचार. अमरीका की दुनिया को सबसे महत्वपूर्ण देन या निर्यात है, अमरीकी विचारधारा. पूंजीवाद का अमरीकी विजन, आज दुनिया को संचालित-प्रेरित कर रहा है, यह बताते हैं फूकियामा. ’80 के दशक में रीगन अमरीकी राष्ट्रपति बने.

उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था में नये प्रयोग किये. कर कम करना, सरकारी कंट्रोल में कमी और जीवन-समाज में सरकार की न्यूनतम उपस्थिति. इन नये कदमों को आर्थिक विकास के इंजन के रूप में देखा गया. रीगनवाद ने पूंजीवाद के तहत सैंकड़ों वर्ष पुरानी मान्यताओं, परंपराओं और थिंकिंग को ध्वस्त किया. रीगन के पहले पूंजीवादी माडल में सरकारें अहम भूमिका में होती थीं. रीगन के बाद, पूंजीवाद का यह नया चेहरा या बाजारवाद दुनिया पर छा गया.

ब्रिटेन में थैचरवाद इसी रास्ते चला. उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन की स्थिर, जड़ और चुनौती भरी अर्थव्यवस्था में तत्कालीन प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर ने अनेक नये प्रयोग किये. रीगन की तरह. वह आइरन लेडी कहीं गयी. इनके प्रयोगों से ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हई. एक तरफ अमरीका और ब्रिटेन पूंजीवादी माडल में संशोधन के बाद मजबूत बन कर उभर रहे थे. उन्हीं दिनों साम्यवादी दुनिया, अपने अंतर्विरोधों से भहरा रही थी. एक अर्थ में फूकियामा ने तब कहा था, विचारों का अंत हो गया. साम्यवादी रूस के जाने से दुनिया एक ध्रुवीय हो गयी. अमरीका अकेला महाशक्ति बचा.

फूकियामा की नजर में अमरीका, पूरी दुनिया में उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थता का प्रमोटर (प्रश्रयदाता) माना जाता था. अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए. 2002 से 2007 के बीच अमरीका की इसी पूंजीवादी ढांचे में, दुनिया की अर्थव्यवस्था ने अप्रत्याशित प्रगति की. फूकियामा मानते हैं कि अमरीका के वालस्ट्रीट से उत्पन्न संकट रीगन इरा (दौर) का अंत है. वह मानते हैं कि रीगन का प्रयोग तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वोत्तम था. पर आज की चुनौतियों के मुकाबले, अब नये उपाय ढूंढ़ने होंगे. देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप. फूकियामा मानते हैं कि अमरीका का सार्वजनिक क्षेत्र, आज प्रोफेशनल नहीं रहा. नैतिक रूप से पस्त है. पूंजी के अभाव से त्रस्त है.

फूकियामा यूरोप के संदर्भ में हिदायत देते हैं कि कामगारों को लंबी छुट्टियां, कम अवधि के काम, नौकरी की गारंटी और इस तरह की अनेक सुविधाएं, अर्थव्यवस्था पर बोझ बन गयीं हैं. इसी बात को अमरीका के संदर्भ में फरीद जकरिया (न्यूजवीक, 20 अक्टूबर 08) कहते हैं. 1980 के बाद अमरीकियों ने जितना उत्पादन किया है, उससे अधिक उपभोग किया है. और इस अंतर को पाटा है, कर्ज से. वह अर्थशास्त्री जेफ्री सचेश को उदृत करते हैं कि अमरीकियों ने बहुत सारी सुविधाएं तो चाहीं, लेकिन उनकी कीमत नहीं चुकायी. दरअसल यह क्रेडिट कार्ड से जन्में, उधारवादी अर्थव्यवस्था का संकट भी है.

कुछ वर्ष पहले ब्रिटेन की संसद ने इस प्रसंग पर गहरा डिबेट किया था कि आसानी से उपलब्ध क्रेडिट कार्ड से ब्रिटेन के युवा कैसे कर्जखोर, शराबी और कंगाल होते जा रहे हैं. मशहूर पत्रिका बिजनेस वीक (27 अक्टूबर 08) ने भी ‘द फ्यूचर आफ कैपिटलिजम’ को मुख्य विषय बनाया है. अर्थसंकट के विस्फोट के बाद अमरीका के फेडरल बैंक के प्रेसीडेंट रिचर्ड फीशर ने दुनिया के वित्त विशेषज्ञों की बैठक को संबोधित किया, 11 अक्टूबर को. फिशर ने देंग शियाओ पेंग के मशहर कोटेशन को दोहराया, बिल्ली चाहे काली हो या सफेद, इससे फर्क नहीं पड़ता, मूल सवाल है कि वह चूहे को पकड़ने की ताकत-क्षमता रखती है कि नहीं.

क्या विचित्र संयोग है कि साम्यवाद के अंतर्विरोध से निकलने के लिए देंग शियाओ पेंग ने चीन के संदर्भ में 1980 में इस मुहावरे को गढ़ा. तब उन्हें एहसास नहीं रहा होगा कि कभी पूंजीवाद को संकट से उबरने के लिए उनका यही मुहावरा वेद वाक्य बन जायेगा.

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