‘हम युद्ध की विभीषिका से अवगत हैं, आइए हम सब साहस करें मिल कर दुनिया को परमाणु ताकत रहित बनाने और शांति को स्थापित करने का.’ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ये शब्द हिरोशिमा स्मारक की पुस्तिका में लिखे हैं.
वर्ष 1945 में जापानी शहरों (हिरोशिमा और नागासाकी) में परमाणु बम गिराने के सात दशकों के बाद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने हिरोशिमा की यात्रा की है. हालांकि, इन दशकों में जापान और अमेरिका बेहद करीब आये हैं, पर उस भयावह त्रासदी की टीस जापान के दिलो-दिमाग में बनी रही तथा अमेरिका ने भी बम गिराने के फैसले पर गंभीरता से कभी नहीं सोचा. लेकिन, ओबामा ने अपने कार्यकाल में ऐसे अनेक पहल किये, जिनसे विश्व शांति की प्रक्रिया को मजबूती मिली है. हिरोशिमा से पहले वियतनाम जाकर उन्होंने बरसों से चली आ रही तनातनी को नरम करने की कोशिश की.
कुछ महीने पहले उन्होंने 50 सालों से क्यूबा के साथ चले आ रहे तनाव को समाप्त कर सकारात्मक दिशा देने का प्रयास किया है. अर्जेंटीना की यात्रा में उन्होंने अमेरिकी विदेश नीति की खामियों का भी जिक्र किया. जो निराशावादी इन परिघटनाओं को महज ‘सांकेतिक’ मान कर आलोचनात्मक दृष्टि से देख रहे हैं, उन्हें ईरान के साथ पश्चिमी देशों की हुई संधि और प्रतिबंधों के हटने की ओर भी नजर दौड़ाना चाहिए. ऐसे प्रयास क्रूर हिंसा के दौर से जूझ रही दुनिया के भविष्य के लिए शुभ सूचनाएं हैं.
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर आज शायद ही ऐसा कोना बचा हो जहां हिंसा, आतंक, अविश्वास और टूटन नहीं है. ऐसे में शांति और सहयोग की हर छोटी-बड़ी पहल का स्वागत होना चाहिए. क्या यह अद्भुत नहीं है कि अलगाव के हजार साल बाद कैथोलिक ईसाईयत के प्रमुख पोप और रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च के मुखिया क्रिरिल क्यूबा की कम्यूनिस्ट धरती पर एक-दूसरे से मिल रहे हैं? पोप अमेरिका में अश्वेतों और अन्य प्रवासियों के अधिकारों के साथ खड़े हो रहे हैं, तो वे इजरायल और फिलिस्तीन के बीच शांति कराने के लिए भी प्रयासरत हैं. ऐसे पहल दुनिया में सकारात्मक बदलाव की ओर इशारा भी कर रहे हैं और इन्हें मजबूत बनाने में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को जोर-शोर से सहयोग देना चाहिए.