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नीतिगत दृष्टि जरूरी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो संबोधन ‘मन की बात’ में कहा है कि पानी और वनों का संरक्षण हमारा कर्तव्य है. जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण दुनियाभर में पर्यावरण को बचाने की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है. कुछ महीने पहले पेरिस में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय समुदाय […]

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो संबोधन ‘मन की बात’ में कहा है कि पानी और वनों का संरक्षण हमारा कर्तव्य है. जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण दुनियाभर में पर्यावरण को बचाने की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है. कुछ महीने पहले पेरिस में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इस संबंध में महत्वपूर्ण निर्णय लिया है जिसमें भारत भी शामिल है. केंद्र और राज्यों की सरकारें वनीकरण, नदियों की सफाई, स्वच्छ ऊर्जा, पानी बचाने आदि के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताती रही हैं. लेकिन, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण की प्रक्रिया में पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं को प्रमुखता देने की दिशा में संतोषजनक पहलों का अभाव साफ दिखायी देता है.

मौसम का मिजाज बदल रहा है, बाढ़ और सूखे की आवृत्ति बढ़ती जा रही है, नदियों की हालत खराब है, ताल-तालाब सिमट रहे हैं, जंगल जल रहे हैं या सूख रहे हैं तथा प्रदूषण की समस्या विकराल होती जा रही है. बढ़ती आबादी के लिए भोजन और रोजगार उपलब्ध कराने तथा विकास की गति को जारी रखने के लिए उत्पादन और इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की चुनौती भी हमारे सामने है. अब इस सवाल का जवाब खोजने का समय आ गया है कि विकास की आकांक्षाओं और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन कैसे स्थापित हो. इस सवाल को टालते जाना संकट को सघन करना होगा.

ऐसे में नीति विशेषज्ञों, वाणिज्य-व्यापार के जानकारों तथा पर्यावरणविदों को गहन सोच-विचार करना चाहिए. इस प्रक्रिया में सरकार को हरसंभव मदद देकर एक ठोस राष्ट्रीय नीति बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए. राजनीतिक दलों को भी इस प्रवृत्ति से मुक्त होना होगा कि जब सरकार में रहें, तो कुछ और करें, तथा जब विपक्ष में हों, तो अपनी राय बदल कर सिर्फ सरकार के विरोध करें. प्राकृतिक संकट की दिनों-दिन गंभीर होती स्थिति किसी सरकार या समुदाय की समस्या नहीं है. यदि हम देश के स्तर पर इस दिशा में सकारात्मक पहल कर सकेंगे, तो वैश्विक स्तर पर चल रहे विमर्श में भी समुचित हस्तक्षेप करने की स्थिति में होंगे. विकास और प्रकृति में सही संतुलन साध कर ही हम भविष्य के प्रति आश्वस्त हो सकते हैं.

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