प्रभात रंजन
कथाकार
कल मां ने फोन पर बताया कि 20 तारीख के आसपास बढ़िया लीची मिलने लगेगी. असल में हम मुजफ्फरपुर वालों के लिए मई का महीना खास हुआ करता है. यह महीना हमको लीची के बहाने जोड़ता है. मुजफ्फरपुर वालों को, बिहार के तिरहुत इलाके के वासी अपने शाही लीची पर नाज करते हैं. मुझे याद है कि करीब 15 साल पहले मैं मसूरी में एक प्रतिष्ठित परिवार के यहां मेहमान था. खाने के बाद उन्होंने मुझे लीची खाने के लिए दी.
देहरादून की लीची का पूरे देश में नाम लिया जाता है, उसके स्वाद को सराहा जाता है. लेकिन पहली लीची खाते ही मैंने तौबा कर ली. मेजबान ने बड़ी हैरानी से पूछा- क्या हुआ? यह तो देहरादून की खास लीची है. मैंने जवाब दिया कि मैं शाही लीची के इलाके का हूं. शाही लीची जैसा स्वाद कहां? मेजबान का चेहरा उतर गया था.
मेरे दादाजी कहा करते थे कि आम फलों का राजा जरूर है, क्योंकि वह पूरी गर्मियां हमारे स्वाद के ऊपर राज करता है, लेकिन लीची तो फलों का बादशाह होती है. साल में मुश्किल से 15 दिनों के लिए आती है और साल भर की खुशी दे जाती है. तिरहुत के इलाके में आम के बाग का होना कोई बड़ी बात नहीं मानी जाती है. असली बात तो यह होती है कि आपके पास लीची के कितने पेड़ हैं.
एक जमाना था जब तिरहुत में शादियां लीची के बाग को देख कर होती थीं. वह भी लीची का ऐसा बाग, जिसमें शाही लीची के खूब सारे पेड़ हों, चाइना लीची के नहीं. शाही लीची में गुठली न के बराबर होती है और भीने गंधवाला भरपूर मीठापन, जबकि चाइना लीची में गुठली बड़ा और गूदा कम होता है.
मई का महीना आते ही चाहे जहां भी रहूं मुंह में शाही लीची का स्वाद आने लगता है, लीची की याद आने लगती है.
हम विस्थापित लोग अपनी मिट्टी, अपने फलों, उसके स्वाद को विस्थापित नहीं कर सकते. ऐसा संभव ही नहीं होता. शाही लीची ऐसी होती है, जो पकने के बाद जब पेड़ से टूट जाती है, तो बहुत दिनों तक रह नहीं पाती, सड़ने लगती है. मुजफ्फरपुर से आनेवाली ट्रेनों में मई के महीने में अपने विस्थापित प्रियजनों के साथ यह सौगात भी जरूर आती है. हम सब बेसब्री से इंतजार करते रहते हैं कि इस महीने कोई आये हमारे शहर से इस तोहफे के साथ.
सूचना संचार के साधनों ने दूरियों को तो कम कर दिया है, लेकिन इस दूरी को पाटने का कोई रास्ता नहीं निकला है आज तक. हर साल सुनता हूं कि गर्मियां बढ़ने से लीची की पैदावार पहले से कम होती जा रही है. हर साल बैसाख, जेठ के महीनों में आनेवाली आंधियों में फलों के झड़ने का डर बना रहता है. नाउम्मीदी बनी रहती है. लेकिन हर साल शाही लीची का स्वाद वही बना रहता है.
जब भी मुजफ्फरपुर जाना होता है, तो देखता हूं कि शहर में बहुत बदलाव होता जा रहा है. महानगर की सारी सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं, शहर का मिजाज बदल रहा है, उसकी संस्कृति में अब पहले जैसा मेल-मिलाप, अपनापन नहीं बचा है. सुख-सुविधाओं के अकेलेपन में तिरहुतिया लोग भी कैद होते जा रहे हैं.
तिरहुत के लोगों की संस्कृति में मेहमानवाजी रही है. वे लोग अपनी परंपराओं को भूलते जा रहे हैं, अपने अतीत के गौरव को लेकर बेख्याली बढ़ती जा रही है. वर्तमान का दबाव इतना अधिक है कि उसके सामने सब बेमानी होता जा रहा है.
लेकिन शुक्र है कि शाही लीची अभी भी अपने ललछौंहे रंग और आत्मा को तृप्त करनेवाले स्वाद के साथ मौजूद है. लीची हमें अपने शहर की विरासत की याद हर साल दिला जाती है. एक फल भी हमें अपने मूल से जोड़े रख सकता है. मैं सोच रहा हूं कि इस साल लीची का स्वाद मुजफ्फरपुर में जाकर लूं.