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पानी सहेजने का वक्त

नाजमा खान टीवी पत्रकार कई बार कुछ मुद्दों पर लिखना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. शॉवर में नहा कर, एसी रूम में बैठ कर, फ्रीज के ठंडे पानी को पीते हुए क्या हम लातूर सरीखी जगहों के दर्द को महसूस कर सकते हैं? शायद बिल्कुल भी नहीं. उस दर्द, उस बेबसी, उस लाचारी, उस […]

नाजमा खान

टीवी पत्रकार

कई बार कुछ मुद्दों पर लिखना बहुत ही मुश्किल हो जाता है. शॉवर में नहा कर, एसी रूम में बैठ कर, फ्रीज के ठंडे पानी को पीते हुए क्या हम लातूर सरीखी जगहों के दर्द को महसूस कर सकते हैं? शायद बिल्कुल भी नहीं. उस दर्द, उस बेबसी, उस लाचारी, उस मजबूरी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता, जो वहां के लोगों पर बीत रही है.एक आज का दिन है, जब मुझे भरप्यास पानी मयस्सर है. एक वे दिन थे, जब हम भी पानी की राह तकते थे.

बार-बार सूखे नल को निहारते थे. घर का सारा टाइमटेबल पानी पर बेस्ड था. मम्मी-पापा को सुबह पांच बजे ही पानी की तलाश में निकलते देखा है. आप सोच रहे होंगे कि यह किसी गांव की कहानी है. बिल्कुल नहीं. यह तो दिल्ली के पॉश इलाके साउथ एक्स की हकीकत है, जहां हम पहले रहते थे. पानी के टैंकर का आना और चौथी मंजिल पर पानी चढ़ाना किसी पर्वत को फतह करने से कम नहीं था. उन दिनों हम पानी की नींद सोते थे, पानी के ही सपने देखते थे. बहरहाल, घर बदला तो हमारे दिन पलट गये.

आज जब टीवी पर देश में पानी के लिए तरसते लोगों को देखती हूं, तो रूह कांप जाती है. अखबार में खबर पढ़ी कि दस साल की एक बच्ची पानी लेने जा रही थी कि इसी दौरान रेलवे क्राॅसिंग पर ट्रेन की चपेट में आ गयी. दस साल का कोई बच्चा क्या खुद का ख्याल रख सकता है? लेकिन वह बच्ची अपने घर वालाें के लिए पानी लाने गयी थी. शर्म आनी चाहिए हमें कि मूल समस्याओं पर बहस के बजाय हम बेवजह की बहसों में उलझ कर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं!

हमें सरकार को नहीं कोसना चाहिए, क्योंकि पानी का खत्म होना या सूखा पड़ना किसी सरकार की देन नहीं है. लेकिन इन हालात से निबटने में सरकार क्या करती है, इसे लेकर जरूर सरकार पर नजर रखनी चाहिए.

हालात एक दिन में नहीं बिगड़ते. चेतावनी कई सालों से दी जा रही थी. अब जब पानी सिर के पार हो गया है, तो हम जागे हैं. पानी समेत कई समस्याओं की वजह से जान दे रहे किसान शायद कोई मुद्दा नहीं हैं. योजनाएं बहुत बनती हैं, पर उनका लाभ किसे और कैसे मिलता है, इसे जानना हो, तो श्याम बेनेगल की फिल्म ‘वेल डन अब्बा’ जरूर देखिये, जिसमें दिखाया गया है कि कागजों पर मिली पानी की बावड़ी कैसे कागजों पर ही गुम हो जाती है और सरकारी योजना की पोल खुल जाती है.

देश के अलग-अलग भागों में बावड़ी को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. कहीं इसे बावली, कहीं बावड़ी, कहीं बेरी, तो कहीं बारव कहा जाता है. अंगरेजी में इसे स्टेप वेल कहते हैं, वहीं कन्नड़ में कल्याणी या पुष्करणी कहा जाता है.

देश में पानी सहेजने के इतने खास तरीके हैं, बावजूद इसके देश के कई हिस्से पानी को तरस रहे हैं. दिल्ली में करीब आधा दर्जन बावड़ियां हैं, जो आज महज फिल्मी पर्दे पर दिखाई देती हैं. दिल्ली हर दौर में व्यापारियों के लिए वह पड़ाव रही है, जहां व्यापारी रुकते थे. दिल्ली की कुछ बावड़ियां तो उन व्यापारियों के लिए आरामगाह थीं. इन बावड़ियों से लगे कमरे ठंडे होते थे. उसके पानी से होकर गुजरनेवाली हवा मुसाफिरों की सुस्ती मिटाती थी.

हमारे देश की बावड़ियां यूनेस्को की लिस्ट में शामिल हैं. गुजरात की ‘रानी की बारव’ हो या फिर ‘चांद बावड़ी’, इन्हें देखने का अपना आकर्षण है. सिंधु घाटी सभ्यता का ‘महान स्नानागार’ तो पानी सहेजने का खास इंतजाम ही था, जिसे आज के दौर में सोचना बेहद हैरान करनेवाला है. काश हमने उस विरासत को सहेजा होता, तो आज हमें पानी की किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता. लेकिन, हम तो उस देश के वासी हैं, जहां प्यास लगने पर ही कूआं खोदा जाता है!

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