विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
आजकल बाबासाहेब आंबेडकर पर अधिकार जताने की होड़ चल रही है. कोई नेता स्वयं को उनका ‘शिष्य’ बता रहा है और कोई ‘भक्त’. लेकिन, बाबासाहेब की उपेक्षा का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि हमारी सरकारों ने डाॅ आंबेडकर के उस मकान को स्मारक तक नहीं बनाया, जिसमें वे दिल्ली में रहते थे.यह इस बात का ही उदाहरण है कि हमारा नेतृत्व इस देश की जनता को कितना भोला (पढ़िये मूर्ख) समझता है!
दलितों के मसीहा और भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पी डाॅ आंबेडकर की 125वीं जयंती जिस जोर-शोर से मनायी गयी है, वह उचित ही है. लेकिन उनके सचमुच के भक्तों और उनके भक्त होने का दावा करनेवालों के उत्साह के अंतर को जानना-पहचानना मुश्किल नहीं है. यह सहज ही सामने आ जाता है कि कहां ईमानदार आस्था है और कहां निहित स्वार्थों के लिए इस आस्था का दिखावा है.
डाॅ आंबेडकर ने एक ऐसे जाति-मुक्त भारतीय समाज की कल्पना की थी, जहां जन्म के आधार पर किसी को छोटा या बड़ा नहीं माना जायेगा. जब उन्हें लगा कि हिंदू धर्म में रह कर जाति के बंधनों से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, तो उन्होंने अपने समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया.
उन्होंने और उनके समर्थकों ने शपथ ली थी कि ‘मैं अपने उस पुराने हिंदू धर्म को अस्वीकार करता हूं, जो मनुष्य की समृद्धि में बाधक है और जो व्यक्ति और व्यक्ति के बीच अंतर करता है और मुझे छोटा समझता है.’ डॉ आंबेडकर की 125वीं सालगिरह के दिन राजा वेमुला ने अपनी मां के साथ बौद्ध धर्म अपना कर बाबासाहेब के धर्म-परिवर्तन की महत्ता को ही रेखांकित किया है.
राजा वेमुला उस रोहित वेमुला का भाई है, जिसने कुछ महीने पहले हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में इसलिए आत्महत्या कर ली थी कि वह हिंदू धर्म में अपने अपमान को सह नहीं पाया था. अब राजा को ऐसे जीवन की उम्मीद है, जो दूसरे मनुष्यों के लिए करुणा, गरिमा, सम्मान, आत्मसम्मन की भावना पर आधारित हो. धर्म-परिवर्तन के समय राजा वेमुला ने यह भी कहा कि ‘अब मैं शर्मिंदगी से मुक्त, रोज के अपमान से मुक्त जीवन जी सकूंगा’. साठ साल पहले यही शब्द डाॅ आंबेडकर ने भी उचारे थे. तो क्या इस दौरान स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया?
परिवर्तन तो आया है, पर उतना नहीं जितना आना चाहिए था. समता पर आधारित जिस भारतीय समाज की परिकल्पना डाॅ आंबेडकर ने देश के संविधान के माध्यम से की थी, उस दिशा में न तो कदम उतनी तेजी से उठे हैं और न ही समाज की सोच में परिवर्तन लाने की वैसी ईमानदार कोशिश हुई है, जैसी होनी चाहिए थी. हां, इस बीच यह सब करने के वादे और दावे हमारे राजनेता जरूर करते रहे. आज जो स्थिति दिख रही है, उससे तो यही लगता है कि हमारे नेतृत्व की रुचि परिवर्तन लाने में नहीं, राजनीतिक लाभ उठाने में है. यह एक शर्मनाक सच्चाई है कि हमारे नेताओं ने आंबेडकर को लूट-खसोट की वस्तु बना दिया है. काश, कोई उन मूल्यों-आदर्शों की रक्षा भी करना चाहता, जिनके आधार पर आंबेडकर मनुष्य को मनुष्य मानने के मूल्य स्थापित करना चाहते थे.
डॉ आंबेडकर की 125वीं जयंती पर हर कोई खुद को आंबेडकर-भक्त घोषित करने में लगा था. बाबासाहेब की प्रशस्ति में अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाये गये. राजनीतिक दलों में होड़ लगी थी यह बताने की कि कौन बड़ा आंबेडकर-भक्त है. उनके जन्म-स्थान महू से लेकर उनकी दीक्षा-भूमि नागपुर तक पहुंच कर राजनेताओं ने ‘जय भीम’ का नारा लगाया. यह समझना आसान था कि इन नारों के पीछे का उद्देश्य राजनीतिक लाभ उठाने का था. इन सबकी नजरें उन तेरह प्रतिशत दलित मतदाताओं पर थीं. अर्थात् उद्देश्य आंबेडकर के सपनों का भारत बनाना नहीं, आंबेडकर के नाम पर वोट जुटाना है.
1924 में डाॅ आंबेडकर ने ‘बहिष्कृत हितकािरणी सभा’ का गठन किया था. यह शायद पहली कोशिश थी अछूत माने जानेवालों द्वारा अपने आप को कोई नाम देने की. बाबासाहेब ने अछूतों को केंद्र में आने के उनके अधिकार से परिचित कराया. यह अहसास बहुत महत्वपूर्ण था, पर जरूरत इस अहसास के साकार होने की थी. यह सपना अब भी सपना है. देश का समूचा राजनीतिक नेतृत्व दलितों के उत्थान का समर्थक दिखना चाहता है. बाबासाहेब ‘ब्राह्मण जैसा बड़ा’ नहीं बनना चाहते थे, वे दलितों को बड़ा होने का अर्थ देना चाहते थे.
यह काम राजनीति नहीं कर सकती. यह काम मनुष्य के विवेक को जगा कर ही हो सकता है और इसके लिए राजनीति द्वारा भक्ति के दिखावे की नहीं, बल्कि एक ईमानदार कोशिश की जरूरत होती है.