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राजनीतिक-संस्कृति का पतन

।। विश्वनाथ सचदेव।। (वरिष्ठ पत्रकार) प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के संभवत: आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सवाल पूछा गया था, ‘क्या आपको लगता है कि राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी में बराबरी का मुकाबला है? एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री से इस सवाल का अपेक्षित उत्तर यही हो सकता है कि वह राहुल गांधी का गुणगान करे. उन्होंने […]

।। विश्वनाथ सचदेव।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के संभवत: आखिरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सवाल पूछा गया था, ‘क्या आपको लगता है कि राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी में बराबरी का मुकाबला है? एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री से इस सवाल का अपेक्षित उत्तर यही हो सकता है कि वह राहुल गांधी का गुणगान करे. उन्होंने यही किया भी. उनका उत्तर था, ‘मुङो पूरा विश्वास है कि अगला प्रधानमंत्री यूपीए गठबंधन का ही होगा और नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना देश के लिए घातक होगा.’ घातक से उनका क्या अभिप्राय है, यह बताना उन्होंने जरूरी नहीं समझा, लेकिन उनका यही शब्द सर्वाधिक चरचा का विषय बन गया.

मनमोहन सिंह के समर्थकों को इस उत्तर में उनकी ‘दृढ़ता’ का परिचय मिला और उनके भाजपाई विरोधियों को यह शब्द आशाहीन और असंसदीय लगा. चरचा इस बात को लेकर हो रही है कि प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के लिए विरोधी पार्टी के शीर्ष नेता माने जानेवाले व्यक्ति के लिए इस तरह की बात नहीं कहनी चाहिए. इस तर्क में कितना दम है, यह एक व्यक्तिपरक दृष्टिकोण पर निर्भर कर सकता है, लेकिन इस बहस से जो बड़ा सवाल उभरता है, वह हमारी राजनीति में व्यक्त उद्गारों के औचित्य-अनैतिक्य का है. जिस तरह से, और जिस गति से, हमारी राजनीति वैयक्तिक आरोपों-प्रत्यारोपों से घिरती जा रही है और जिस तरह से विवेक का स्थान कुतर्क लेते जा रहे हैं, वह हमारी जनतांत्रिक परंपराओं-मर्यादाओं के बारे में चिंता की स्थिति मानी जानी चाहिए.

राजनीतिक विरोध को वैयक्तिक विरोध मान लेना या फिर राजनीतिक विरोधी को दुश्मन समझना अजनतांत्रिक ही कहा जा सकता है. राजनीतिक विरोधी के गुणों को स्वीकारना राजनीति की जनतांत्रिक परंपरा का हिस्सा है. इसके कई उदाहरण हैं. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार सांसद बने थे तो सदन में उनका ओजस्वी भाषण सुन कर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पूछा था, ‘यह लड़का कौन है?’ उत्तर मिलने पर उनकी प्रतिक्रिया थी, ‘यह उस तरफ क्या कर रहा है?’ यह कह कर नेहरू ने विरोधी पार्टी के युवा सांसद की प्रशंसा की थी. ऐसा ही उदाहरण एक बार अटल जी ने भी पेश किया था.

लेकिन ऐसा नहीं लग रहा है कि हमारे आज के राजनेता पारस्परिक सम्मान की इस तरह की परंपराओं को समझते हैं अथवा उनका सम्मान करते हैं. संसद में और संसद के बाहर हमारी राजनीति जिस तरह व्यक्तिगत आक्षेपों का उदाहरण बनती जा रही है और जिस तरह विरोधी नीतियों की आलोचना का सम्मान विरोधी की चरित्र-हनन ने ले लिया है, वह हमारी राजनीतिक-संस्कृति के पतन का ही उदाहरण है.

आजादी के 15-20 साल के बाद का हमारा संसदीय इतिहास जनतांत्रिक मूल्यों के लगातार ह्रास का ही उदाहरण है. संसद और विधानसभाओं में हमारे प्रतिनिधियों ने अशालीनता और अभद्रता के जो उदाहरण पेश किये हैं, उन पर सिर्फ शर्म ही आ सकती है. हर स्थिति और हर अवसर का राजनीतिक लाभ उठाने की निर्लज्ज आकांक्षा के उदाहरण दिखना सामान्य बात हो गयी है. यह मान लिया गया है कि राजनीति में सब कुछ जायज है. इस तरह के आपराधिक नासमझी के उदाहरण बहुत पहले ही शुरू हो गये थे. इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया कहने की बात हो या फिर जेपी नारायण को विदेशी आकाओं के इशारों पर चलने की, दोनों मर्यादाहीन राजनीति के ही उदाहरण हैं. बाद के वर्षो में तो यह मर्यादाहीनता इस सीमा तक बढ़ गयी कि लगने लगा जैसे यही राजनीति होती है. राजनेता यह भूल गये हैं कि आलोचना का मतलब अपशब्द कहना नहीं होता. वे यह भी याद रखना नहीं चाहते कि अकसर श्रोताओं की तालियां लूटनेवाले शब्द या जुमले शालीन व्यवहार की परिभाषा में नहीं आते. था कोई दौर जब पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व अपने सहयोगियों को ऐसे व्यवहार से बचने की सलाह देता था. अटल जी ने 2002 के चुनावों में ‘अनुचित भाषा’ प्रयोग करने के लिए अपने सहयोगियों को फटकारा था. अब वे सहयोगी खुद शीर्ष नेतृत्व बन रहे हैं, उन्हें कौन समझाए?

यह काम अब मतदाताओं को करना होगा. जनतंत्र में मतदाता का काम सिर्फ वोट देना ही नहीं होता, वह राजनेताओं के भाषण सुननेवाला मूक श्रोता नहीं होता. उसका दायित्व है कि वह अनुचित व्यवहार करनेवाले, अनुचित भाषा प्रयोग करनेवाले राजनेताओं को यह भी बताये कि वह उनसे विवेकसम्मत व्यवहार की अपेक्षा करता है. ओछे शब्दों के सहारे तालियां बंटोरना एक बात है और विवेकसम्मत बात से मतदाता को अपना पक्ष समझाना दूसरी. जनतंत्र में बहस के लिए पर्याप्त स्थान है, बकवास के लिए नहीं. बेहतर है हमारा नेतृत्व इन दोनों शब्दों के अर्थ को समङो और यह भी समङो कि एक-दूसरे को नीचा दिखा कर समर्थन पाने की कोशिश जनतंत्र की नींव को कमजोर करती है.

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