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बांग्लादेश और भारत के कुछ साझा सच

।। पुष्पेश पंत।। (विदेश मामलों के जानकार) शेख हसीना की अवामी पार्टी ने बांग्लादेश के चुनावों में तीन चौथाई बहुमत से जीत भले ही हासिल कर ली हो, इससे हमारे पड़ोस का संकट दूर नहीं हुआ है, बल्कि यही सोचना तर्कसंगत है कि आनेवाले दिनों में हालात और अधिक हिंसक और विस्फोटक बननेवाले हैं. सांप्रदायिकता […]

।। पुष्पेश पंत।।

(विदेश मामलों के जानकार)

शेख हसीना की अवामी पार्टी ने बांग्लादेश के चुनावों में तीन चौथाई बहुमत से जीत भले ही हासिल कर ली हो, इससे हमारे पड़ोस का संकट दूर नहीं हुआ है, बल्कि यही सोचना तर्कसंगत है कि आनेवाले दिनों में हालात और अधिक हिंसक और विस्फोटक बननेवाले हैं. सांप्रदायिकता हो या असमाजिक तत्वों की सक्रियता अथवा संगठित अपराधी माफियाओं द्वारा इनकी कारस्तानियों का सर्वनाशक लावा अनिवार्यत: बह कर सरहद पार हमें झुलसाने को आयेगा. इसलिए मात्र सामरिक संवेदनशीलता वाली अमूर्त बहस से छुटकारा पाने की जरूरत है.

संपन्न हुए चुनावों को किसी भी कसौटी पर जनादेश नहीं कहा जा सकता. बांग्लादेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बीएनपी के साथ ही जमात-ए-इसलामी और अन्य प्रतिपक्षियों ने भी मतदान का बहिष्कार किया था और एकपक्षीय चुनाव अभियान के दौरान प्रायोजित ढंग से भड़की हिंसा में सौ से अधिक लोगों की जान चली गयी. 1971 के गद्दार युद्ध अपराधियों को सजा दिलाने का काम निस्संदेह हसीना ने पूरा किया है. इस ‘देर सही अंधेर नहीं’ वाले हठ ने देश को दो फाड़ बांट दिया है. यह छिपा नहीं कि 1971 के घाव अभी भरे नहीं हैं.

अतीत की प्रेतबाधा से मुक्ति के पहले घाव भर भी नहीं सकते. यह काम तब तक असंभव है, जब तक बांग्लादेश की राजनीति ‘बांग्ला इतिहास’ की वारिस ‘दो बेगमों’ से परे नहीं सोचती. बांग्लादेश के मुक्तिसंग्राम का तटस्थ इतिहास लेखन अब तक नहीं हुआ है. विडंबना है कि हाल के दिनों में पश्चिमी विद्वान और उनके दक्षिण एशियाई चेले (हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी) तत्कालीन घटनाओं की संशोधनवादी व्याख्या पेश करने में जुटे हैं. इनका दावा है कि मुक्तिसंग्राम का मिथक भारतीयों ने गढ़ा है और यह बखान एकपक्षीय है. कुछ बंगाली-बिहारी, जो पाकिस्तान की एकता के हिमायती थे, आजादी के बाद बंगाली मुक्ति सैनिकों द्वारा मारे गये. एक पहलू यह भी है कि मुक्तिसंग्राम को सहायता देने के बहाने भारत की सेना ने ही पाकिस्तान को तोड़ने के मंसूबे को पूरा किया. 1975 में मुजीब की हत्या और फौजी तख्तापलट के बाद जो रस्साकशी फौज और जनतांत्रिक तत्वों के बीच लगातार चलती रही है, उसके कारण पुराने घावों पर पपड़ी कभी लग ही नहीं सकी है. ऐसे में सच से साक्षात्कार कर सुलह और स्थायी शांति की बात की ही नहीं जा सकी है.

राजनीतिक अस्थिरता, व्यापक भ्रष्टाचार, फौजी तानाशाही के साथ-साथ बांग्लादेश को भारी प्राकृतिक आपदाओं से भी जूझना पड़ा है. ऐसे में आर्थिक जीवन अस्त-व्यस्त रहा है और सामाजिक विषमता निरंतर खतरनाक रूप धारण करती रही है. जनता को जरा भी राहत पहुंचाने में असमर्थ सरकारें या तो प्रतिपक्षी दलों को या बाहरी शत्रु (भारत) की तरफ इशारा करने को बाध्य रही हैं.

कुछ और बातों को ध्यान में रखना जरूरी है. कट्टरपंथी इसलामी मानसकिता के जिस ज्वार का निर्यात सऊदी अरब ने अपने पैट्रोडॉलरों की मदद से किया है, उसका भी बहुत बुरा असर बांग्लादेश की राजनीति पर पड़ा है. दक्षिण एशियाई इसलाम का संस्कार सदा से उदार-सहिष्णु और समन्वयात्मक रहा है. बंगाली मुसलमान बाउल गायक राधा कृष्ण के भजन सूफी तराने और तेवर के साथ पीढ़ियों से गाते रहे हैं. यह सिर्फ एक मिसाल है. पिछले दशक में इंडोनेशिया, मलयेशिया, भारत की ही तरह बांग्लादेश में भी आक्रामक वहाबी इसलाम का प्रसार हुआ है. दुखद है कि जो प्रवृत्ति मौकापरस्त मुनाफाखोर मानसिकता से शुरू हुई, वह क्रमश: मजहबी उन्माद में बदल चुकी है. जिहादी दहशतगर्दो का आतंक मासूम नागरिकों को सहमा कर चुप रखता है. वह भले ही बहुसंख्यक हों अल्पसंख्यक हथियारबंद दस्तों को चुनौती नहीं दे सकते.

इस पृष्ठभूमि का उल्लेख इसलिए परमावश्यक है कि यह बात समझी जा सके कि हाल के चुनावों का बहिष्कार या इनके दौरान हिंसा की जड़ें कितनी गहरी हैं. चुनावी हार-जीत से इस जमीनी हकीकत में फर्क नहीं पड़नेवाला. बांग्लादेश एक ऐसे दुष्चक्र में फंसा है जिससे निकलना उसके लिए आसान नहीं. हसीना खुद को और अपनी पार्टी को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष बताती हैं, तो खालिदा को कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी से हाथ मिलाने में कभी कोई हिचक नहीं हुई. ताजातरीन बदलाव अमेरिकी नजरिये में हुआ है, जो जमात को ऐसा जनतांत्रिक और समझदार दल मानने लगा है, जिसे बांग्लादेश की राजनीति की मुख्यधारा में लाना जरूरी है. भारत के अनुसार यह दल दहशतगर्दो का मुखौटा भर है. इसी कारण खालिदा के साथ हमारा निबाह कठिन है.

दिक्कत यह है कि हसीना भारत की भरोसेमंद मित्र हैं, पर प्रशासक के रूप में नाकामयाब रही हैं. उनकी दलील ठीक है कि विपक्ष की हिंसक गतिविधियों तथा हड़ताल-बंद की वजह से ही देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है और उनका कामकाज बाधित हुआ है, पर कहीं न कहीं यह बात कबूल करनी ही पड़ेगी कि मात्र धर्मनिरपेक्षता और आज की दुनिया में अन्यत्र नकारे जा चुके समाजवादी नारों भर से किसी का पेट नहीं भर सकता, न किसी अल्पसंख्यक की जान बच सकती है. भ्रष्टाचार पर भी एकाधिकार किसी एक दल का नहीं. आर्थिक विकास की गति तेज करने के लिए विदेशी पूंजी निवेश हो अथवा रोजगार पैदा करने के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दी जानेवाली छूट- दीर्घकालीन दृष्टि से इसका जितना भी राष्ट्रीय लाभ हो, तात्कालिक दृष्टि से वंचित तबके की जिंदगी का दुख-दर्द इससे बढ़ता ही जाता है. अभाव, उत्पीड़न और शोषण के मारे सहज ही सांप्रदायिक या स्वयंभू-अति क्रांतिकारी तत्वों द्वारा फुसलाये-बहलाये-भड़काये जाते हैं. चीन हो या पाकिस्तान, भारत के बैरी हों या प्रतिस्पर्धी, बांग्लादेश की आंतरिक अस्थिरता-अनिश्चितता का लाभ अपने सामरिक हितों की पूर्ति के लए करने का प्रयास करें, यह स्वाभाविक ही है. भारत को इस विषय में सतर्क रहना चाहिए.

विडंबना है कि सतह पर भले ही यह सब जहर अभी नजर नहीं आता, हमारी अपनी हालत बांग्लादेश से बहुत बेहतर नहीं. ताकतवर सांप्रदायिक उपद्रवियों का असहाय अल्पसंख्यकों के नाम पर तुष्टीकरण हो या दैत्याकार भ्रष्टाचार, इन्होंने हमारे जनतंत्र को जानलेवा कैंसर की तरह खोखला करना शुरू कर दिया है. जब हम वहां दो बेगमों की भिड़ंत की बात करते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि हमारा सामंती जनतंत्र कितना कुनबा परस्त और व्यक्तिपूजक है. शायद इसीलिए चुनाव के बाद वाले बांग्लादेश के दर्पण में झांकने से हम कतरा रहे हैं!

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