क्या शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य उसका रोजगारदिलाऊ होना है? या भारत जैसे देश में शिक्षा का उद्देश्य स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और जागरूक नागरिक के व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होना भी है? शिक्षा के उद्देश्य को लेकर इस दुविधा पर आजादी की लड़ाई के जमाने से बहस होती रही है.
बहस एक हद तक अनिर्णीत रही है, लेकिन हाल-फिलहाल ऐसा जान पड़ता है कि शासन ने अपनी नीतियों में और समाज ने अपनी भावना में एकबारगी मान लिया है कि शिक्षा का प्रधान उद्देश्य उसका रोजगारपरक होना है, खास कर उच्चतर शिक्षा का. 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में उच्चतर शिक्षा को रोजगारपरक बनाने के लिए नये सिरे से प्रयास करने की बात कही गयी है.
आये दिन ऐसे शोध भी प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमें उच्चतर शिक्षा की खामियों की चरचा होती है. इस दिशा में सर्वाधिक अग्रणी साबित हुई है देश के सेवा और विनिर्माण क्षेत्र की चिंताओं को जाहिर करनेवाली कुछ कंपनियां, जिन्होंने बीते पांच वर्षो में अपने शोधों के जरिये लगातार यह बताने की कोशिश की है कि देश में प्रौद्योगिकी और मानविकी की उच्चशिक्षा प्रदान करनेवाले संस्थान अपने छात्रों को ऐसी शिक्षा मुहैया करा पाने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं, जो उन्हें उदारीकरण के दौर में नौकरियों की बदलती मांगों के अनुरूप कौशल प्रदान कर सके. इसी कड़ी में एक ताजा सर्वे का निष्कर्ष है कि देश में करीब 47 फीसदी ग्रेजुएट नौकरी के लिए बुनियादी कौशल से वंचित हैं. सर्वे के अनुसार, 80 फीसदी से ज्यादा स्नातकों में पाठ या स्थिति के विश्लेषण की क्षमता का अभाव है.
मात्र 21 फीसदी स्नातक बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिग (बीपीओ) सरीखी नौकरियों के काबिल हैं. तथ्य यह भी है कि विश्व के अग्रणी 200 विश्वविद्यालयों में इस साल भारत का एक भी नहीं है. लेकिन देश में उच्चशिक्षा की प्रमुख समस्या उसकी रोजगारपरकता नहीं, अवसरों की कमी व असमानता है. गुणवत्ता का प्रश्न बाद में आता है. उच्चशिक्षा में दाखिले का वैश्विक आंकड़ा 26 फीसदी है, जबकि भारत में मात्र 13.8 फीसदी. जब तक उच्चशिक्षा में मांग और पूर्ति के बीच गहरा असंतुलन कायम है, उच्च शिक्षा का आकलन सिर्फ रोजगारपरकता के लिहाज से करना मुख्य समस्या से मुंह मोड़ने जैसा ही होगा.