झारखंड सरकार के सामने स्वर्णरेखा परियोजना को समय पर पूरा करने की चुनौती है. हाल ही में केंद्र ने इसके लिए 4224 करोड़ का अनुदान दिया है. साथ ही चेतावनी दी है कि अगर समय पर काम पूरा नहीं किया गया तो यह अनुदान कर्ज में बदल जायेगा. राज्य अभी 34,869 करोड़ के कर्ज में डूबा है. अगर उस पर चार हजार करोड़ से ज्यादा का और कर्ज लद जायेगा, तो नतीजा गंभीर होगा?
हर राज्य चाहता है कि उसे अधिक से अधिक अनुदान मिले. कर्ज तो मजबूरी में लिया जाता है. अब चुनौती यह है कि जो परियोजना 35 साल से पूरी नहीं हो सकी है, वह कैसे 2016 तक पूरी हो जायेगी? अभी तीन साल बचे हैं. यह समय कम नहीं होता. स्वर्णरेखा परियोजना 1978 में प्रारंभ हुई थी. उस समय इसकी लागत लगभग 129 करोड़ आंकी गयी थी. 35 साल में बढ़ते-बढ़ते लागत साढ़े छह हजार करोड़ से ज्यादा हो गयी. समय पर अगर परियोजना पूरी हो गयी होती तो न सिर्फ यह राशि बचती, बल्कि इस परियोजना का लाभ भी मिलता. खेती बेहतर होती.
सवाल है कि काम समय पर पूरा नहीं होने के लिए कौन दोषी हैं? इस परियोजना में 16000 से ज्यादा परिवार विस्थापित हुए थे. विस्थापितों को जब मुआवजा नहीं मिला तो उन्होंने लंबा आंदोलन चलाया. इस परियोजना का विरोध भी होता रहा. सरकार की नीति साफ नहीं रही. जिन लोगों को विस्थापित किया गया, अगर उनका समय पर और सही तरीके से पुनर्वास हो गया होता, उचित मुआवजा मिल गया होता, तो आज स्थिति अलग होती. कई बार वन विभाग से अनुमति नहीं मिलने के कारण विलंब हुआ. इस बात को कैसे भूला जा सकता है कि केंद्र ने आठ साल तक इसे राशि नहीं दी.
बिना पैसे के परियोजना का काम कैसे आगे बढ़ेगा? अब हालात बदले हैं. सरकार ने राशि दे दी है. लेकिन अगर नेतृत्व सक्षम नहीं रहा तो इस पैसे का बंदरबाट होगा. सरकार की कड़ी निगाह होनी चाहिए. गौरतलब है कि स्वर्णरेखा परियोजना की जमीन बेचने का मामला भी सामने आया था. ऐसे में आवश्यक है कि कड़ी निगरानी हो. भ्रष्टाचार करनेवालों के खिलाफ कार्रवाई हो. युद्ध स्तर पर अगर काम हो, बाधाओं को दूर किया जाये, तो कोई कारण नहीं है कि समय पर यह परियोजना पूरी न हो.