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भांति-भांति की सुबह की सैर
व्यालोक स्वतंत्र टिप्पणीकार आज की जिंदगी में भागदौड़ का विशेष चलन है. आप जैसे ही 30 साल के ऊपर के होते हैं, मोटापा, ब्लडप्रेशर, कोलेस्ट्रॉल, थायरॉयड, गठिया आदि जैसे कई रोगों का खतरा आपके आसपास मंडराने लगता है. फिर आप उपचार तलाशते हैं और जो सबसे पहला उपचार जेहन में सूझता है, वह सुबह उठ […]
व्यालोक
स्वतंत्र टिप्पणीकार
आज की जिंदगी में भागदौड़ का विशेष चलन है. आप जैसे ही 30 साल के ऊपर के होते हैं, मोटापा, ब्लडप्रेशर, कोलेस्ट्रॉल, थायरॉयड, गठिया आदि जैसे कई रोगों का खतरा आपके आसपास मंडराने लगता है. फिर आप उपचार तलाशते हैं और जो सबसे पहला उपचार जेहन में सूझता है, वह सुबह उठ कर भागने का ही होता है. हालांकि इसे सैर भी कह सकते हैं.
सुबह की सैर कई प्रकार की होती है. राजधानी दिल्ली के लोधी गार्डन में बहुतेरे लोग रात में ली गयी वारुणी और कुक्कुट को पचाने के लिए भी टहलने या जॉग करने जाते हैं. वहां चूंकि बड़े-बड़े धनपति, नौकरशाह, वकील और मीडिया टायकून भी मिलते हैं, तो इस सैर के राजनीतिक-सामाजिक निहितार्थ भी निकल आते हैं. ऐसी सैर में तोंद घटे या न घटे, कुछ महत्वपूर्ण फैसले घट जाते हैं, कई की परेशानियां घट जाती हैं, तो कई के लिए यह सैर परेशानी बढ़ने का भी सबब होता है.
एक सैर नव-धनाढ्यों की नवीन बस्तियों (अपार्टमेंट) में भी होती है. ये बस्तियां कहीं भी हो सकती हैं- नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गांव, फरीदाबाद आदि. हालांकि, इनकी सैर समझ से परे है.
जब ये लोग अपने ‘पार्क’ में सुबह की सैर या जॉगिंग का मजा (?) लेने जाते हैं, तब इनके ठीक सामने का पांचमंजिला मॉल अपने बीसियों एसी के जरिये टनों कार्बन डाइऑक्साइड उगल रहा होता है. ऐसी किसी भी जगह अलसुबह भी धूल और गर्द में लिपटी सड़क पर अगर कोई सेहत के नाम पर दौड़ता पाया जाये, तो उसका स्वास्थ्य कितना सुधरेगा, इसमें संदेह बना रहेगा.
सैर का एक तीसरा प्रकार हमारे कस्बों में भी है. इनमें अक्सरहां कोई जलाशय या बागीचा इस काम के मुफीद माना जाता है. यहां कुछेक जगहों पर मॉल खुल गये हैं, एकाध पिज्जा-हट की दुकानें भी लग गयी हैं और मेट्रोज यानी दिल्ली-मुंबई की जीवनशैली, जिसमें फैशन से लेकर व्यापार तक काफी कुछ है, को कॉपी करने के लिए लोग लालायित नजर आते हैं. कई बार तो मेट्रो से पहले ही कोई-कोई ‘शैली’ इन जगहों तक आ जाती है.
इन जगहों पर पार्क तो होते नहीं, संगमरमर की बेंचें भी नहीं होतीं, शानदार कपड़ों में लदी-फंदी महिलाएं और नियॉन लाइट से जगमगाते रास्ते भी नहीं होते. तो भी, ‘हिम्मत न हार साथी, चल चला चल’ की तर्ज पर ही, उपलब्ध खंडहर जैसे मैदान में ही सही, जहां धूल की आंधी चल रही हो, झक सफेद कुर्ता और जींस, पांवों में ‘रीबॉक’ न सही तो ‘रीबूक’ का ही जूता डाल कर, यहां के अभिजात्य भी टहलते हैं. गर्मी के मौसम में तो नहा-धोकर निकलने के बाद नुक्कड़ों पर इनका जलवा देखते बनता है.दूर-दराज के गांवों का टहलना आज भी सबसे अलहदा होता है.
यहां औरतें और मर्द ‘गोल’ बना कर जाते हैं- आहिस्ता-आहिस्ता. कोई शायद ही हड़बड़ी में दिखे. टहलने के साथ ही यहां सामूहिक तौर पर ‘दिव्य निपटान’ की भी व्यवस्था हो जाती है. सरकारें हालांकि इस महान ‘सामाजिक गठबंधन’ को तोड़ने की कई वर्षों से कोशिश कर रही है, फिर भी सुबह की यह प्रथा कमोबेश बनी हुई है.
यहां पतोहुओं का गोल अलग होता है, तो सासों का अलग. सभी एक-दूसरे की तरफ निर्लिप्त भाव से देखते हुए विसर्जन-क्रिया के साथ ही निंदा-पुराण का बखान भी चालू रखती हैं. पुरुषों की टोली में पंचायत चुनाव से लेकर प्रधानमंत्री तक, कोई भी चर्चा का विषय हो सकता है. ऐन इसी वक्त, गलती से कोई तथाकथित संभ्रांत यदि इधर से गुजरता है, तो इसमें व्यवधान तय है.
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