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राष्ट्रभक्ति कोई नारा नहीं
शायद ही कोई संस्कृतिप्रेमी भारतीय होगा, जिसके मुंह से कबीर, नानक, सूरदास और तुलसीदास के वचन न निकलते हों और जिसे भारतीय संत-परंपरा के साहित्य पर गर्व ना हो. भक्ति-भावधारा के संतों में बहुत सी बातों पर भले मतभेद थे, लेकिन वे एकबात पर सहमत थे कि भक्ति हृदय का धर्म है और हृदय सिर्फ […]
शायद ही कोई संस्कृतिप्रेमी भारतीय होगा, जिसके मुंह से कबीर, नानक, सूरदास और तुलसीदास के वचन न निकलते हों और जिसे भारतीय संत-परंपरा के साहित्य पर गर्व ना हो.
भक्ति-भावधारा के संतों में बहुत सी बातों पर भले मतभेद थे, लेकिन वे एकबात पर सहमत थे कि भक्ति हृदय का धर्म है और हृदय सिर्फ अपना कहा मानता है, हृदय को जोर-जबरदस्ती के सहारे कुछ मानने पर मजबूर नहीं किया जा सकता. भक्ति के साथ एक दिलचस्प तथ्य यह भी जुड़ा है कि उसे दुनियावी तरीकों से साबित नहीं किया जा सकता.
इसी कारण आज भी जब कोई अपने हृदय के भाव किसी के सामने जाहिर करता है और उस पर अविश्वास जताया जाता है, तब उसके मुंह से अपनी सफाई में यही तर्क निकलता है कि हम कोई हनुमान नहीं जो अपनी छाती फाड़ कर दिखा दें कि हमारे हृदय में राम-सीता बसते हैं. जो बात भगवान के सगुण या निर्गुण रूप की भक्ति पर लागू होती है, वही बात राष्ट्रभक्ति के प्रसंग पर भी लागू हो सकती है. हर राष्ट्रवासी के हृदय में कुछ शिकायतों, उलाहने-ताने के बावजूद राष्ट्र जीवन के आसरे की एकमात्र मूर्ति के रूप में बसा होता है.
इसलिए यह बात उसी व्यक्ति पर छोड़ दी जानी चाहिए कि वह अपनी राष्ट्रभक्ति को किन शब्दों, भावों-विचारों और व्यवहार के जरिये व्यक्त करता है. भगवान की भक्ति की तरह राष्ट्रभक्ति का भी कोई एकहरा शास्त्र या मंत्र नहीं बनाया जा सकता. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भक्ति के इस स्वभाव को पहचान कर ठीक ही कहा है कि भारतदेश में किसी को भी ‘भारतमाता की जय’ कहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता.
भक्ति का धर्म अपने प्रिय को हजार नामों से पुकारने का निमंत्रण देता है. कोई जय हिंद कहे, कोई जय भारत कहे, कोई हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारे लगाये, वंदे मातरम् कहे या फिर कोई ये सारे शब्द न बोलते हुए भी अपने मन में भारतीय जनता के दुखों को धारण करते हुए कोशिश करे कि ये दुःख-दारिद्रय भारतभूमि से दूर हों, तो इन सबको समान रूप से मां भारती की ही संतान माना जायेगा और इनमें से हरेक के भावों की महत्ता एकसमान ही मानी जायेगी.
बात चाहे मां के वात्सल्य भाव की हो या ईश्वर की करुणा की, दोनों समदर्शिता के ही आंख से देखते हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि आरएसएस प्रमुख की स्वीकारोक्ति के बाद किसी एक नारे के सहारे लोगों की राष्ट्रभक्ति पर संदेह करने या किसी की राष्ट्रभक्ति को किंचित हेय समझने और इसी कारण उसे धमकाने या उससे मारपीट पर उतारू होने की घटनाओं में कमी आयेगी.
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