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दुनिया के भीतर एक दुनिया
सुजाता युवा कवि एवं लेखिका भौतिकी में हम पढ़ते आये हैं कि हर वह वस्तु जिसका भार होता है और जो जगह घेरती है, उसे ‘द्रव्य’ या मास कहते हैं. जनसंख्या के अर्थ में भी हम मास शब्द का इस्तेमाल करते हैं. जब यह सोचने की कोशिश करती हूं कि औरत की जगह इस दुनिया […]
सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
भौतिकी में हम पढ़ते आये हैं कि हर वह वस्तु जिसका भार होता है और जो जगह घेरती है, उसे ‘द्रव्य’ या मास कहते हैं. जनसंख्या के अर्थ में भी हम मास शब्द का इस्तेमाल करते हैं. जब यह सोचने की कोशिश करती हूं कि औरत की जगह इस दुनिया में क्या है, तो सच में मैं सिर्फ जगह के बारे में सोचने की ही कोशिश करती हूं यानी एकदम शुद्ध भौतिक अर्थ में वह ‘जगह’ जो कोई वस्तु या प्राणी घेरता है.
पांडवों के पांच गांव मांगने पर दुर्योधन ने कहा था कि सुई की नोक बराबर भी जगह नही दूंगा. यानी घेरी हुई जगह प्रभुत्व का प्रतीक है. जमीन के महत्व और जगह के लिए होनेवाली लड़ाइयों से इतिहास भरा हुआ है. यह समझना मुश्किल नहीं है कि जो जितना अपना विस्तार करेगा और वह उतनी ही जगह घेरेगा. जो जितनी अधिक जगह पर अपना दावा करेगा, उसका प्रभुत्व उतना ही बढ़ेगा.
लक्ष्मण सीता के लिए रेखा खींच चले थे, कि जब तक भीतर हो सुरक्षित रहोगी. बाहर की जगहों को स्त्री के लिए असुरक्षित कर उन पर कब्जा किसने किया? फिर मुझे याद आता है बॉलीवुड का एक प्रसिद्ध गीत- ‘सिमट रही है वो शरमा के अपनी बाहों में…’ और मुझे यह बिलकुल रूमानी नहीं लगा.
इसे मैं घेरी जा रही जगह के अर्थ में देखती हूं. एक का आगे बढ़ना और एक का खुद में ही सिमटना. अब भी अधिकतर भारतीय घरों की अच्छी बहुएं-बेटियां बाहर कम दिखती हैं, बालकनी या छत पर यूं ही बेमतलब नहीं लटकती रहतीं. अपनी दुनिया को छोटा करना औरत के साथ एक मूल्य की तरह जोड़ दिया गया है. यह सिमटना अपने ही भीतर औरत का सामाजिक प्रशिक्षण है. अपने आस-पास जगह घेरती सिर्फ देहों को देखने की कोशिश करें, तो आप पायेंगे कि औरतें इस पृथ्वी पर कितनी कम जगह घेरती हैं.
सभी मनुष्यों की केवल द्रव्य के अर्थ में कल्पना करें, तो देखेंगे कि स्त्री देह का व्यवहार अतिरिक्त सावधानी भरा है, सिकुड़ने की स्वाभाविक प्रवृत्ति के साथ. किसी अजनबी की बगल में बैठ कर यात्रा करना या फिल्म देखना हो, तो कुर्सी के हत्थे को क्लेम करना भी अक्सर एक चुनौती हो जाती है. किसी सार्वजनिक बेंच पर सर्दी की धूप में लेटने की इच्छा को दबा दिया जाता है. रात के दस बजते-बजते बसें और मेट्रो मुश्किल से ही औरतों के निशान पाती हैं. किसी सामूहिक आयोजन में या किसी के घर जाकर औरतें अपने लिए कोई कोना (अक्सर रसोई) चुन लेती हैं और पुरुषों को उनके हाल पर छोड़ देती हैं.
स्त्रियां पृथ्वी पर कम जगह घेरती हैं और नितांत शब्दकोशीय अर्थ में कम ‘जगह’ घेरने की वजह से अपना प्रभुत्व उस तरह कायम कर ही नहीं पायी हैं, जिस अर्थ में पुरुषों ने किया है. छोटी बच्चियों को पांव खोल कर बैठने को मना किया जाता है, सार्वजनिक स्थानों पर स्त्री का सिमट कर न बैठना और अंगड़ाई लेना अभद्र माना जाता है, भीड़ में चलते हुए अजनबी शरीरों से अपनी देह को टकराने से बचाने का पहला कर्तव्य स्त्री का ही होता है. इस तरह धीरे-धीरे वे अपने शरीर को कम से कम जगह में समेटे रखना सीख लेती हैं.
वे खुद को घर में समेट लेती हैं. घर की भी रसोई तक समेट लेती हैं. वे खुद को किराने की दुकान, दफ्तर, बच्चे के क्रेच, सब्जी के ठेले तक समेट लेती हैं. वे अपने वक्त को भी सिकोड़ लेती हैं. बचा हुआ सारा वक्त और जगह जिसे वे क्लेम नहीं करतीं; जैसे कि पब, बार, डिस्को, क्लब, सार्वजनिक पार्क, शराब के ठेके, संसद, राजनीति, पंचायत, चौपाल, देर रात तक चलनेवाली मीटिंग, सबरीमाला का मंदिर, होली का हुल्लड़, गांव की बारात वगैरह-वगैरह, यानी वे सारी जगहें, जहां स्त्री का होना एक आम पुरुष को हैरान करे. जहां कहीं भी स्त्रियां अनुपस्थित हैं, वे जगहें उनके लिए खाली नहीं हैं. वहां भी अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पुरुष ही हैं.
एक ही जगह का इस्तेमाल भी स्त्री और पुरुष एक तरह से नहीं करते. सार्वजनिक जगहें और वाहन आदि का इस्तेमाल कौन करनेवाला है, उसी के आधार पर उनका निर्माण किया जाता है. स्त्री का जीवन घर, बच्चे, परिवार के बीच टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा रहता है. बाहर काम के लिए निकलनेवाली ज्यादातर महिलाएं सार्वजनिक परिवहन का ही इस्तेमाल करती हैं.
नये किस्म की बसें, जिनमें चढ़ने के लिए बहुत ऊंचे पायदान नहीं हैं, वे अब जाकर हमारी सड़कों पर आयी हैं. पुरुष रास्ते में किसी भी जगह को शौचालय की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं. दिल्ली जैसे महानगर में स्त्रियों के लिए सार्वजनिक स्वच्छ शौचालय, और वे भी बहुत कम, मैं पिछले छह-सात वर्षों से ही देख रही हूं. हालांकि, अब कई मेट्रो स्टेशनों पर यह सुविधा उपलब्ध है. फील्ड में काम करनेवाली औरतों के लिए ,वे कॉन्स्टेबल हो या पत्रकार या सब्जी का ठेला लगानेवाली स्त्री, सार्वजनिक जगहें अब भी इस दृष्टि से अनुकूल नहीं हैं.
ग्रामीण इलाकों में सार्वजनिक जगहों का स्त्री-पुरुष बंटवारा ही नहीं दिखता है, बल्कि सवर्ण-अवर्ण जातियों के बीच भी जगहों के ऐसे विभाजन एकदम साफ नजर आते हैं. औरतें भले पंचायत में पहुंचने लगी हों, लेकिन चौपाल तक उनका प्रवेश वर्जित है. शौचालयों के अभाव में अपने ही घर-गांव रात के समय में एक औरत के लिए असुरक्षित हो जाते हैं. जो जगहें ताकत की प्रतीक हैं, जैसे ‘घर की बैठक’ या ‘ठाकुर का कुआं’, वहां से वे बेदखल हैं.
पिछले दशक में ही यूनाइटेड नेशन की पहल से कुछ देशों में ‘जेंडर फ्रेंडली’ शहर बनाने की योजनाएं शुरू हुईं.एक शहर को औरतों के लिहाज से निर्मित किया जाना, जहां उनकी दिनचर्या व सुरक्षा को ध्यान में रखा जाये, साथ ही उनकी जरूरतों और रुचियों की भिन्नता का भी ख्याल रखा जाये, तो भविष्य की दुनिया का निर्माण किया जा सकता है. अगर इस बहाने लैंगिक-रूढ़ छवियों के और रूढ़ होने की संभावनाओं को भी ध्यान में रखा जा सके! खुद स्त्री को भी अपनी विकास-यात्रा में सिमटते-सिकुड़ते हुए दुनिया के भीतर एक छोटी-सरल-सुरक्षित दुनिया बनाने की प्रवृत्ति त्यागनी होगी.
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