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असहज को सहज बनाया जाना!

सुजाता युवा कवि एवं लेखिका सुरक्षित तरीके से यात्रा करना स्त्री का अधिकार है और यात्रा के दौरान उसकी गरिमा सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है. हम कैसे भूल सकते हैं कि निर्भया के लिए एक छोटी सी बस यात्रा जीवन की अंतिम यात्रा हो गयी थी. लेकिन, जब महिलाओं की सुरक्षा की बात आती […]

सुजाता
युवा कवि एवं लेखिका
सुरक्षित तरीके से यात्रा करना स्त्री का अधिकार है और यात्रा के दौरान उसकी गरिमा सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है. हम कैसे भूल सकते हैं कि निर्भया के लिए एक छोटी सी बस यात्रा जीवन की अंतिम यात्रा हो गयी थी. लेकिन, जब महिलाओं की सुरक्षा की बात आती है, तो सरकारें अक्सर ऐसे नायाब किस्म के उपाय खोज के लाती हैं, जिससे लगता है कि उनका मकसद कोई फौरी इलाज करना है, लैंगिक असमानता मिटाना नहीं है, जो महिलाओं के खिलाफ होनेवाली हिंसा का सबसे बड़ा कारण है.
रेल यात्राओं में महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा सबसे पहले 1998 में उस वक्त सामने आया, जब एक गैर-सरकारी संस्था की कुछ महिला सदस्यों के साथ शराब पीकर सेना के तीन जवानों ने बदसलूकी की थी. इसके खिलाफ मुहिम भी छेड़ी गयी, लेकिन इस तरह की घटनाएं होती रहीं.
ऐसी ही लगातार होनेवाली घटनाओं के मद्देनजर कुछ समय पूर्व मुंबई में पश्चिमी रेलवे ने महिलाओं के कोच में सीसीटीवी कैमरा लगाये. रेलों और रेलवे स्टेशन को निगरानी में रखना समझ आता है, लेकिन सिर्फ स्त्रियों के कोच को निगरानी में रख कर भारतीय रेलवे महिलाओं की कैसे सुरक्षा सुनिश्चित करनेवाला थ, यह समझ से परे है. बाड़ाबंदी करके किसी सामान की तरह स्त्रियों को यहां से वहां ढोना तो इसका हल नहीं ही हो सकता. यात्रा कर रही स्त्रियों की निजता में खलल डालने के अलावा उन कैमरों का कोई गलत इस्तेमाल नहीं होगा, यह व्यवस्था में भ्रष्टाचार के बिलकुल विद्यमान न होने की खुशफहमी ही है. यह कोई समझदारी नहीं है कि शिकारी खुलेआम निर्द्वंद्व होकर घूमे, मौका तलाशे और शोषित को लगातार निगरानी मे रखा जाये.
करीना कपूर और शाहिद कपूर अभिनीत एक फिल्म थी ‘जब वी मेट’, जिसमें रात को स्टेशन मास्टर से मदद मांगने नायिका जाती है, तो वह उलटा उसे ही समझाता है कि अकेली लड़की खुली तिजोरी की तरह होती है. अक्सर पिता, भाई, पति या दोस्त कहते हैं लड़की से कि हम तुम्हारी सुरक्षा के लिए ही तुम पर निगरानी करते हैं, इसमें तुम्हारी ही भलाई है. औरतें कैसे कपड़े पहनें, इसकी सलाहें इसी सोच से निकलती हैं. हैरानी की बात है कि राज्य भी ‘मर्द’ हुए बिना एक नागरिक की तरह स्त्री को न सुरक्षा दे सकता है, न गरिमामय जीवन.
यह निगरानी वाला मसला बहुत सीधा नहीं है. स्त्रियों का सामाजिक प्रशिक्षण इस तरह का किया जाता है कि अक्सर उन्हें खुद इस निगरानी में सुरक्षित महसूस होने लगता है. भेड़ों को भेड़ियों से सुरक्षा लगती ही होगी अपने बाड़े में. तो क्या स्त्रियां राज्य के लिए लायबिलिटी मात्र हैं?
और क्या यह उन्हें एक कमजोर वर्ग समझा जाना नहीं है? बात सिर्फ इतनी भी होती, तो इस मानसिकता से निबटना आसान था. समस्या की जड़ यहां है कि इस सामाजिक व्यवस्था को स्वयं स्त्रियां इस तरह आत्मसात कर चुकी हैं कि उन्हें इसमें कुछ भी अनुचित नहीं लगता, बल्कि वे खुद को ही दूसरों की नजर से देखती हैं. कैसे हंसती है, कैसे बैठती है, कैसे बात करेंगी तो कौन देखेगा, इतनी देर तक सड़क पर खड़ी होगी, तो कोई क्या सोचेगा. इस तरह फिर उन्हें कुछ असहज नहीं लगता. इस कदर कि उनके परिवारजन तो छोड़िए, उनसे एकदम असंबंधित व्यक्ति भी उनसे देर से घर आने या जल्दी जाने का कारण पूछे, तो वे बड़ी ही मासूमियत से अपनी सफाई देने लगती हैं.
इसे समझना जरूरी है, क्योंकि यह एक असहज स्थिति को सहज बना दिये जाने का समाजशास्त्र है. यह अपने-आप की निगरानी स्त्री में तभी आती है, जब वे स्वयं का वस्तुकरण कर लेती हैं. हमें स्त्री का वस्तु बना दिया जाना सिर्फ फिल्मों, विज्ञापनों, फैशन शो वगैरह में तो आसानी से दिखता है, ऐसी बातों में नहीं दिखता, जिनकी शुरुआत अक्सर हमारे घरों से ही होती है.
खुद अपने-आप को वस्तु मानने लगना अपने-आप की निगरानी करने देने के लिए समाज को स्वीकृति देने की पहली शर्त है. जब कोई व्यक्ति लंबे वक्त तक निगरानी में रहा हो, तो बहुत स्वाभाविक है कि वह एक सरविलांस (नजर रखने के संबंध में) अपने दिमाग में ही निर्मित कर लेता है. स्त्रियों ने सदियां बितायी हैं घर की चारदीवारी के भीतर, पुरुषों और पितृसत्ता की प्रतिनिधि बड़ी-बूढ़ियों की निगरानी में और इस तरह उन्होंने खुद को खुद ही की और इसलिए दूसरों की भी निगरानी में रहने के लिए अभ्यस्त कर लिया है.
पितृसत्ता को अपने वजूद के लिए स्त्री का यह आत्मानुशासन चाहिए, क्योंकि वह हमेशा मौजूद नहीं रह सकती किसी स्त्री के साथ. किसी सार्वजनिक स्थान पर हर वक्त दुपट्टा ठीक करतीं लड़कियां, अपने पांव कभी खोल कर न बैठनेवाली लड़कियां, नुक्कड़ों पर ऐसे ही बेकाम न खड़े रहनेवाली लड़कियां, बेवक्त किसी पुरुष को साथ लेकर निकलनेवाली लड़कियां और घर पर पूछने से पहले ही घर के मुखिया की हां और न जाननेवाली लड़कियां इस पूरी व्यवस्था में असहजता को महसूस करने और सवाल उठाने के बजाय अपना समय और स्पेस का दायरा समेटती चली जाती हैं. कितने से कितने वक्त बाहर निकलना है. किन जगहों पर एकदम नहीं जाना है. यह एक लंबे प्रशिक्षण का परिणाम है. यह बौद्धिक क्षमताओं को भी प्रभावित करता है, आत्मविश्वास भी कम करता है. यह एक गरिमामय जीवन-स्थिति नहीं है.
याद किया जाना चाहिए कि पिछले ही साल जब राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिका के मुसलिम समुदाय को आतंकवादी गतिविधियों के मद्देनजर सेल्फ-सरविलांस की सलाह दी थी, तो उसका व्यापक विरोध किया गया था.
यह वस्तुकरण स्त्री को मानवता के स्तर से गिराता है और उसके शोषक को तो निश्चित रूप से अमानवीय बनाता ही है.कम-से-कम राज्य को तार्किक तरीके से सोचते हुए, लैंगिक-समानता के लिए सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करनेवाली संस्थाओं लिए प्रशिक्षण कार्यशालाएं अनिवार्य करनी चाहिए. सार्वजनिक स्पेस में एक-दूसरे के साथ होने पर स्त्री-पुरुष का एक-दूसरे से व्यवहार क्या हो, इसका प्रशिक्षण भी उतना ही जरूरी है, जितना कानूनों और न्याय-प्रक्रिया का प्रभावी बनाया जाना.

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