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घर टूटा है, मन टूटा है
नियामिका वर्मा अधिवक्ता मोबाइल पर मेसेज आया है, जिसमें लालच है कि उठो! खरीद लो 2बीएचके, 3बीएचके फ्लैट्स! साथी कह रहे हैं, रीयल इस्टेट के दाम को चढ़ते जाना है, कुछ निवेश करो. लेकिन मेरी नजर में कुछ दिन पहले आयी चिट्ठी की लिखावट अटकी हुई है. उस चिट्ठी ने ही घर और मकान का […]
नियामिका वर्मा
अधिवक्ता
मोबाइल पर मेसेज आया है, जिसमें लालच है कि उठो! खरीद लो 2बीएचके, 3बीएचके फ्लैट्स! साथी कह रहे हैं, रीयल इस्टेट के दाम को चढ़ते जाना है, कुछ निवेश करो. लेकिन मेरी नजर में कुछ दिन पहले आयी चिट्ठी की लिखावट अटकी हुई है. उस चिट्ठी ने ही घर और मकान का अंतर समझाया था. मकान खरीदे जा सकते हैं, लेकिन घर को बसाना पड़ता है. चिट्ठी का पहला वाक्य था- ‘घर बिका था या मकान?’ मैं इस पंक्ति के बाद आगे अपलक पढ़ती गयी.
‘एक-एक कर आस-पड़ोस के लोग आते, कोई कुछ ले जाता, कोई कुछ ढूंढता! कोई केवल मिलने का बहाना करता, पर आंखें रहती चीजों पर. कुछ लोग इसी आपाधापी में एक दो सामान खिसका रहे थे अपनी पोटली में. किसी को क्या पता था कि मकान नहीं बिका था, हाथ से छूटा था उसका घर, जिसे बनाने में उसे सालों लगे थे.’
जब वह डोली से उतरी थी, तो धरोहर में मिला था उसे एक खपड़ैला मकान, टूटे-फूटे कुछ फर्नीचर, एक सुंदर पति, एक बूढ़ी सास और मकान से टपकता पानी. उसने घूंघट के पीछे से ये आंक लिया था कि आनेवाला समय चुनौतियों से भरा होगा, पर उसे अपनी पंखों की उड़ान पर पूरा भरोसा था. समय के साथ वह गौरैया बन गयी थी, तिनकों की तलाश में कभी इस डाल कभी उस डाल. कड़ी मेहनत के बाद उसे शहर के एक कॉलेज में शिक्षिका की नौकरी मिली, नौकरी जरूरी थी. आखिर वह तीन बेटियों की मां जो थी. बच्चों के आते ही उसके अंदर पहले से ज्यादा शक्ति आ गयी, सपने बड़े होते गये और उड़ान भी.
घर बिका है.
मिलने आनेवाले लोगों का तांता लगा है, लेकिन उसका मन सालों पीछे भाग रहा है. कितना खाली-खाली सा हो रहा है मन, वैसे ही जैसे उसका घर खाली हो रहा है. तो क्या घर मन ही की किसी बनावट का नाम है, क्या घर का बसना और मन का बसना एक ही बात है? उसकी निगाहें सड़क पर जम गयीं, मानो उसकी जिंदगी की कोई रील सड़क पर चल रही हो.
आंसू बहते जा रहे थे. सब कुछ तो छूट रहा था, पर इंतजार वहीं लटका रह गया था गेट पर, कभी पति का, कभी बच्चों का, कभी खुद के लौटने का.
समय से तेज केवल मन ही चलता है, सत्तर साल जैसे चुटकी में बीत गये, लड़कियों की परवरिश, उनकी पढ़ाई, उनका घर बसाना, पति को खोना, इन सारी घटनाओं ने प्रैक्टिकल बना दिया था उसे. आधी से ज्यादा उम्र गुजरी थी उस घर में और आज एक दस्तखत से सब कुछ खत्म हो गया था झटके में! कितना विवश हो गयी थी बढ़ती उम्र से, समाज से. बेटियों के घर रहना, दामाद क्या सोचेगा, बेटी के ससुराल वाले क्या कहेंगे! उसके सामने सवालों के ढेर थे, चुनौतियां भी!
नहीं! नहीं! इस उम्र में अकेले रहना, कब मिसहैपेनिंग हो जाये!
कितने सालों से जमीन के दलालों की गिद्ध दृष्टि थी उसके घर पर. सब जानते थे कि वह अकेले रहती है. बेटियां कभी-कभी आती हैं. और कहीं गहरे में उन्हें इंतजार था. घर के टूटने का इंतजार! क्या यह सच है, क्या कोई किसी के घर के टूटने का ख्याल अपने मन में ला सकता है?
उसे याद आया, चालीस साल पहले लोग कहीं जाते थे तो पड़ोसी को घर की, घर के बुजुर्ग की जिम्मेवारी सौंप जाते थे. अब तो लोग बताना ही नहीं चाहते कि अलां या फलां तारीख को घर में कोई ना रहेगा.
पता नहीं कब कौन नया लिबास पहन ले, क्या कर बैठे!
बीते चालीस सालों में समय बदला है, इंसान होने की परिभाषा बदल गयी है. अचरज नहीं कि किसी का घर टूटा है, लेकिन लोग उसे बिखरे सामानों का एक ढेर समझ कर अपनी पोटली में भर रहे हैं.
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