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अर्थव्यवस्था को गति देना जरूरी
डॉ भरत झुनझुनवाला अर्थशास्त्री बजट भाषण में वित्त मंत्री ने स्वीकार किया है कि वित्तीय घाटे के संबंध में उन्हें दो परस्पर विरोधी सलाह मिली है. एक सलाह है कि वित्तीय घाटे पर सख्ती से नियंत्रण किया जाये. दूसरी सलाह है कि इसमें छूट दी जाये. सरकार की आय की तुलना में खर्चों की अधिकता […]
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
बजट भाषण में वित्त मंत्री ने स्वीकार किया है कि वित्तीय घाटे के संबंध में उन्हें दो परस्पर विरोधी सलाह मिली है. एक सलाह है कि वित्तीय घाटे पर सख्ती से नियंत्रण किया जाये. दूसरी सलाह है कि इसमें छूट दी जाये. सरकार की आय की तुलना में खर्चों की अधिकता को वित्तीय घाटा कहा जाता है. सरकार को टैक्स 100 रुपये मिले और खर्च 110 रुपये हो तो वित्तीय घाटा 10 रुपये हुआ. घाटे की इस रकम को सरकार ऋण लेकर पूरा करती है.
लोन लेकर सरकार निवेश करे तो वित्तीय घाटा सार्थक होता है, जबकि लोन लेकर सरकार खपत करे तो वित्तीय घाटा हानिप्रद हो जाता है. वर्तमान समय मे वित्त मंत्री के हाथ बंधे हुए हैं. सातवें वेतन आयोग के कारण सरकारी खपत में एक लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष की विशाल बढ़त होने को है. ऐसे मे वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने का अर्थ होगा कि जो थोड़ा सरकारी निवेश हो रहा है उसमें भी कटौती कर दी जाये.
वित्तीय घाटे पर नियंत्रण का दूसरा कारण निवेश को आकर्षित करना बताया जाता है. मान्यता है कि वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने के लिए सरकार अपने खर्च घटायेगी. सरकार को टैक्स कम वसूल करने होंगे.
सरकार को लोन भी कम लेने होंगे. सरकार को लोन देने के लिए रिजर्व बैंक को नोट भी कम छापने होंगे. इससे महंगाई पर नियंत्रण होगा. घरेलू एवं विदेशी निवेशकों को देश की अर्थव्यवस्था पर भरोसा बनेगा. वे भारत में निवेश करने को तत्पर होंगे. वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करने के लिए सरकार द्वारा निवेश में जो कटोती की जायेगी, उससे ज्यादा निवेश निजी स्रोतों से आयेगा और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.
यह फार्मूला संभवतः उस समय सफल हो सकता था, जब विश्व अर्थव्यवस्था में तेजी थी. वर्तमान में ऐसा निवेश नहीं आयेगा, क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है. ऐसे में वित्तीय घाटे पर नियंत्रण करना दोहरा घातक हो जायेगा. भारत सरकार द्वारा खर्च में कटौती करने से घरेलू मांग में गिरावट आयेगी. साथ में विदेशी मांग पहले ही पस्त है.वित्त मंत्री के हाथ बंधे हुए हैं.
सरकारी खर्च पर लगाम लगाना संभव नहीं है. सरकारी निवेश में वृद्धि करना भी संभव नहीं है. इस दुरूह परिस्थिति में वित्त मंत्री को रास्ता निकालना था. उपाय था कि कल्याणकारी योजनाओं को समाप्त करके रकम को परिवारों के बैंक खातों में सीधे डाल दिया जाता. वर्तमान में सरकार द्वारा लगभग 6 लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष खाद्य सब्सिडी, फर्टिलाइजर सब्सिडी, केरोसीन एवं एलपीजी सब्सिडी, मनेरगा, स्वास्थ एवं शिक्षा में दिया जाता है.
यह रकम मुख्य रूप से सरकारी कर्मियों के वेतन और भ्रष्टाचार में खप जाती है. इन्हें समाप्त कर इस विशाल रकम को देश के 25 करोड़ परिवारों के खातों में सीधे डाला जा सकता है. वर्तमान में ही खर्च की जा रही रकम से हर परिवार को हर माह 2,000 रुपये दिये जा सकते हैं. इससे गरीबों के अच्छे दिन तत्काल आ जायेंगे. लोगों द्वारा बाजार से साइकिल तथा कपड़े खरीदे जायेंगे और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी.
दूसरा उपाय है कि सरकारी योजनाओं के अंतिम प्रभाव का आकलन कराया जाये. इन्हें रैंक करके नीचे की दस प्रतिशत योजनाओं को हर वर्ष समाप्त करके ऊपर की दस प्रतिशत योजनाओं के अनुदान को डबल कर दिया जाये.
इससे सरकार के वर्तमान खर्चों की गुणवत्ता मे सुधार आयेगा. वर्तमान में व्यर्थ हो रही रकम प्रभावी हो जायेगी और अर्थव्यवस्था चल निकलेगी. तीसरा, सातवें वेतन आयोग के कारण सरकारी कर्मियों के वेतन में जो वृद्धि होगी, उसे नगद के स्थान पर इंफ्रास्ट्रक्चर बांड के रूप में दिया जाये. ऐसा करने से सरकारी कर्मियों को वेतन वृद्धि हासिल होगी और देश को इंफ्रास्ट्रक्चर भी मिलेगा.
वर्तमान सरकार का तिहाई कार्यकाल बीत चुका है. बातें बहुत हैं, परंतु अच्छे दिनों का इंतजार है. इसके लिए तत्काल सही दिशा में कठोर कदम उठाने की जरूरत थी. वित्त मंत्री ने निवेश बढ़ाने की तमाम घोषणाएं की हैं, लेकिन इनके लिए धन कहां से आयेगा, इसका समुचित उत्तर उपलब्ध नहीं है.
वित्त मंत्री ने कहा है कि बजट के प्रावधानों के कारण इनकम टैक्स में कटौती तथा एक्साइज ड्यूटी में वृद्धि होगी. दोनों बदलावों के सम्मिलित प्रभाव से 19,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त आय होगी. लेकिन यह छोटी सी रकम भी निवेश के लिए उपलब्ध नहीं होगी, क्योंकि पांचवें वेतन आयोग तथा राज्यों व पंचायतों को बढ़े हुए अनुदान में दो लाख करोड़ का अतिरिक्त खर्च होने का अनुमान है. इसलिए पूर्व के निवेश को बचा पाना ही कठिन है.
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