यूं तो संसद की कार्यवाही बीच रास्ते ठप होना लोकतंत्र की सेहत के लिहाज से चिंता की बात मानी जाती है, पर कभी-कभी ऐसा होने पर कुछ बातें जनता के हित की भी निकल आती हैं. लोकपाल बिल को मंजूरी के बाद संसद का शीत सत्र तय समय से पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया. इससे सूचना के अधिकार में संशोधन का खतरा तात्कालिक तौर पर टल गया है.
शीत सत्र 5 दिसंबर को शुरू हुआ था, जो 20 दिसंबर तक चलना था. सत्र जारी रहने के दौरान कार्मिक, जन शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय से संबद्ध स्थायी समिति ने अपनी एक रिपोर्ट सार्वजनिक की. इसमें समिति ने सरकार की इस मंशा से सहमति जतायी कि राजनीतिक दलों को आरटीआइ कानून के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए. केंद्रीय सूचना आयोग ने बीते जून में कहा था कि सभी राष्ट्रीय दल आरटीआइ के दायरे में आते हैं. समिति ने आयोग के इस फैसले को निरस्त करने के लिए आरटीआइ कानून में संशोधन की बात सुझायी है. अगर संसद सत्र जारी रहता तो समिति के सुझावों को मानते हुए सभी दल आरटीआइ कानून को अपने हित में संशोधित करने की दिशा में आगे बढ़ सकते थे.
हालांकि आम चुनाव से पहले बजट सत्र की जगह लेखानुदान पारित कराने के लिए संसद के दोनों सदनों की बैठक एक बार फिर बुलानी होगी, पर तब तक के लिए शासन में पारदर्शिता के हामी जन-संगठनों को फिर से अपनी आवाज उठाने का मौका मिल जायेगा. आरटीआइ के दायरे में आने से बचने के लिए राजनीतिक दल तर्क देते हैं कि वे सार्वजनिक सेवा या सामान प्रदान करनेवाली संस्था नहीं है. उनका एक तर्क यह भी है कि राजनीति मुकाबला विशेष की रणनीतिक तैयारी और विशिष्ट मुद्दों पर दलगत सहमति की मांग करता है, जिसके ब्योरे सार्वजनिक नहीं किये जा सकते. ये तर्क एक हद तक ठीक हैं, लेकिन पार्टियां सार्वजनिक चंदे पर चलती हैं और कुछ सार्वजनिक सुविधाओं (पार्टी ऑफिस के लिए जगह आदि) का भी इस्तेमाल करती हैं, इसलिए कम-से-कम चंदे और खर्च का ब्योरा तो सार्वजनिक करना ही चाहिए, जैसा कि आम आदमी पार्टी ने किया है. संभव है कि आम चुनाव से पहले आरटीआइ कानून की धार बनाये रखने की कोई मुहिम जोर पकड़ेगी!