अनुज कुमारसिन्हा
हाल के दिनाें में मीडिया में आयी इन कुछ खबराें काे पढ़िए.
काेलकाता के स्कूल में शिक्षक से प्रताड़ित छात्रा ने आत्महत्या कर ली
चेन्नई में क्लास में 15 साल के एक छात्र ने अपनी शिक्षिका काे ही छूरा भाेंक कर मार डाला
मुंबई में 10वीं के चार छात्राें ने अपने क्लास की छात्रा के साथ दुष्कर्म किया, एमएमएस बना कर ह्वाट्सएप पर जारी कर दिया
झारखंड के एक स्कूल मेें प्रेम-प्रसंग में 12 साल के बच्चे की हत्या
स्मार्ट फाेन की लत से मनाेराेगी हाे रहे हैं बच्चे
फास्ट फूड के कारण कम उम्र में बच्चे काे हाे रही है डायबिटीज जैसी बीमारियां
बच्चाें का पढ़ने से ज्यादा समय इंटरनेट (फेसबुक, ट्विटर, ह्वाट्सएप आैर इंस्टाग्राम) पर बीत रहा है.
ये खबरें बेचैन करनेवाली हैं. इसमें काेई दाे राय नहीं कि बच्चाें के स्वभाव में तेजी से बदलाव हाे रहे हैं. कम उम्र में बच्चे अब बड़े हाेने लगे हैं, बड़ाें की तरह साेचने लगे हैं. बड़ाें की तरह व्यवहार करने लगे हैं. तकनीक आैर टेलीविजन ने उनकी दुुनिया बदल दी है. बदलाव अगर सकारात्मक हाे ताे स्वागत, लेकिन बात आगे बढ़ चुकी है. बच्चाें में नकारात्मकता बढ़ी है, उनमें धैर्य घटा है. स्कूलाें से जाे बातें छन कर बाहर आ रही हैं, डॉक्टर्स से ताे जाे तथ्य मिल रहे हैं, वह यही बताता है कि बच्चे तनाव में जी रहे हैं. चिड़चिड़े हाे रहे हैं. स्मरण शक्ति खाे रहे हैं. उन बच्चाें की पीड़ा काे, उनकी समस्याआें काे समझने का न ताे माता-पिता के पास समय है आैर न ही स्कूलाें के पास. बच्चे एकाकी जीवन की आेर बढ़ रहे हैं. खेलने के लिए मैदान नहीं है. मजबूरी में वे या टीबी में रम जाते हैं या माेबाइल पर गेम खेलते हैं. यही धीरे-धीरे लत में बदल जाती है आैर ये बच्चे डिप्रेशन के शिकार हाे जाते हैं. बच्चे भारी दबाव में हैं. माता-पिता का दबाव है कि बच्चा इंजीनियर बने, डॉक्टर बने, आइएएस या वैसा ही कुछ बने. काेई इन बच्चाें से नहीं पूछता कि वे आखिर क्या बनना चाहते हैं. माता-पिता के दबाव में एक छात्र ने इंजीनियरिंग में नामांकन ताे करा लिया था, लेकिन उसका मन नहीं लग रहा था, वह परेशान था. बाद में उसने पढ़ाई के दबाव में आत्महत्या कर ली थी. हालत यह है कि अधिकांश माता-पिता बच्चाें के लिए समय नहीं दे पा रहे. हां, ट्यूशन आैर पैसे की व्यवस्था कर अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हाेने का असफल प्रयास करते हैं. 20-25 साल पहले पिता के पास इतना समय हाेता था कि वे शाम में खुद बच्चाें की किताब निकाल कर पढ़ाते थे. आदर्श शिक्षक भी हाेते थे. अब अपवाद में ही ऐसा हाेता है. रात की पार्टी आैर दफ्तर के बाेझ ने बच्चाें से पिता का समय छीन लिया है.
इसका असर दिख रहा है. बच्चे जिद्दी हाे रहे हैं. वे कितने तनाव में हैं, इसका एक उदाहरण देखिए. स्कूल में माइ फैमिली पर लेख लिखने काे कहा गया था. बच्चे ने लिखा कि उसके परिवार में मां हैं, पिता हैं. पिता राेज मां काे पीटते हैं. मैसेज यह है कि उस बच्चे के माता-पिता की आपसी टकराहट का असर उस बच्चे के काेमल दिमाग पर कितना गंभीर पड़ा था. आज हालत यह है कि फास्ट फूड के बिना एक कदम चल नहीं सकते. फूड हैविट आैर लाइफ स्टाइल में बदलाव के कारण स्कूली बच्चाें में माेटापा बढ़ा है, हरी सब्जी गले में अटकती है, आंख की राेशनी जा रही है, डायबिटीज-हृदय राेग के भी शिकार हाे रहे हैं. जाे बीमारियां पहले 40-50 साल की उम्र में हाेती थी, अब 14-18 साल में हाेने लगी है. यह चिंता की बात है. इसने बच्चाें का स्वभाव बदल दिया है. टेलीविजन में कई ऐसे सीरियल आ रहे हैं, जिनसे उद्दंड हाे रहे हैं. बहक रहे हैं. स्वयं काे टेलीविजन के उस पात्र से जाेड़ लेते हैं आैर वैसा ही व्यवहार करते हैं. उन्हें समझाने का किसी के पास वक्त नहीं है. शिक्षकाें के पास बंदिशें हैं. वे बच्चाें काे मार नहीं सकते. बच्चे उनका सम्मान नहीं करते.
अगर कड़ाई की ताे कड़े कानून में फंस जायेंगे, कुछ में ताे बच्चे उन शिक्षकाें काे ही बाहर में समझा देंगे. ऐसी घटनाएं घटी हैं. इसलिए शिक्षक चुप्पी साधने में भला समझते हैं. कम उम्र में बच्चाें काे माेबाइल-बाइक दे कर, मुंहमांगा पैसा देकर (यह कहते हुए कि बाहर किसी रेस्टाेरेंट में दाेस्ताें के साथ खाना खा लेना) माता-पिता खुद उन बच्चाें काे बर्बाद करने के दाेषी हैं. स्मार्ट फाेन, टेलीविजन आैर साेशल साइट्स का उतना ही प्रयाेग करने देना चाहिए , जितना आवश्यक है. सच यह है कि क्लास सात-आठ के बच्चे का समय भी एडल्ट साइट देखने में बीतता है आैर इसी का नतीजा है, वे कई बार अपराध कर भी हर चीज काे हासिल करना चाहते हैं. स्कूली बच्चाें द्वारा पैसे के लिए अपने अमीर साथी का अपहरण, फिर हत्या, वाहन लूट तक में शामिल हाेने की घटनाएं हाेती रही हैं. अब समय है चेतने का. बच्चाें पर नजर रख कर उसे अच्छा-बुरा में फर्क रखने का. समय के अभाव में माता-पिता बच्चाें पर नजर नहीं रख पाते. क्या कर रहे हैं बच्चे. स्कूल से बंक मारना आम बात है. बच्चाें में खुलापन बढ़ा है. आपस में गालियाें से बात करने की आदत बढ़ी है. इसे फैशन के ताैर पर छात्र देखते हैं. शिक्षिकाआें पर भी कमेंट करते हैं. स्कूलाें में पढ़नेवाली अनेक छात्राएं तनाव में हैं, किसी से बाेल नहीं पाती. एक छाेटी सी गलती/ नादानी के बाद उन्हें ब्लैकमेल करने के मामले बढ़े हैं. एमएमएस बनाने, इंटरनेट पर जारी करने से वे परेशान हैं. वे अपनी पीड़ा काे शेयर भी नहीं कर पाती. छात्राें में आक्रामकता बढ़ी है. कुछ स्कूलाें काे छाेड़ दें, ताे संस्कार विकसित करने की परंपरा खत्म सी हाे गयी है. एक जमाना था जब नानी-दादी कहानियां सुनाती थी, रामायण-गीता, महाभारत समेत अन्य धर्मग्रंथाें की जानकारी देती थी, अब वह सब खत्म हाे गयी. यह पतन उसी का नतीजा है. इससे उबरने का एक रास्ता है नैतिक शिक्षा का, बच्चाें में संस्कार डालने का, उन्हें समझने का, उनसे बात करने का, उन्हें सम्मान देने की कला सिखाने का.
ये बच्चे ही भविष्य हैं. इनकी रक्षा करना, बेहतर इंसान बनाना हम सभी का दायित्व है. लेकिन इसके पहले यह समझना हाेगा कि आखिर स्कूल में चल क्या रहा है. बच्चे किस हाल में हैं. क्या उनकी परेशानी काे काेई सुननेवाला है. हाल में आये बदलाव के लिए दाेषी काैन है आैर इसका निदान क्या है, यह समझने के लिए हमने पाठकाें से राय भी मांगी थी. बच्चाें से आग्रह किया था कि वे भी लिखें. कई पाठकाें ने पत्र भेजा है. हम पाठकाें-बच्चाें की कलम से उनकी प्रतिक्रिया काे भी जल्द ही छापेंगे.