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फंदा ऋण का, फांस बचत की

अनिल रघुराज संपादक, अर्थकाम.कॉम हम ही हम हैं सब जगह. हमारे बिना किसी का काम नहीं चलता. न सरकार की सत्ता चलती है और न ही कंपनियों और बैंकों का धंधा. टैक्स से रूप में मिला जनधन ही सरकार की संजीवनी है और लोगों से मिली जमा ही बैंकों का मूलाधार है. लेकिन विचित्र कालिदासी […]

अनिल रघुराज

संपादक, अर्थकाम.कॉम

हम ही हम हैं सब जगह. हमारे बिना किसी का काम नहीं चलता. न सरकार की सत्ता चलती है और न ही कंपनियों और बैंकों का धंधा. टैक्स से रूप में मिला जनधन ही सरकार की संजीवनी है और लोगों से मिली जमा ही बैंकों का मूलाधार है. लेकिन विचित्र कालिदासी व्यवस्था है कि सभी अपने मूलाधार को ही काटने में जुटे हैं.

इसे रोकने के सरंजाम जरूर हैं. लेकिन इतने लचर हैं कि काम नहीं आते. जैसे, किसी भी बैंक के डूबने पर जमाकर्ता को मूलधन व ब्याज को मिला कर अधिकतम एक लाख रुपये ही मिल सकते हैं. भले ही उसकी जमाराशि कई करोड़ रुपये क्यों न हो.

असल में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्ण स्वामित्व वाली सब्सिडियरी, डिपॉजिट इंश्योरेंस एंक क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन बैंकों में जमाधन की बीमा सुविधा लोगों को देती है. लेकिन, बीमा भुगतान की अधिकतम सीमा इस सरकारी निगम ने 1991 से ही एक लाख रुपये बांध रखी है.

इसके खिलाफ बॉम्बे हाइ कोर्ट में गुहार लगायी जा चुकी है. लेकिन सरकार का कहना है कि बैंकों में जमा रकम का 89 प्रतिशत हिस्सा एक लाख रुपये से कम है. इसलिए यह सीमा बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है. सरकार को कौन बताये कि 1991 के एक लाख रुपये में अगर सालाना 6.5 प्रतिशत की भी मुद्रास्फीति जोड़ी जाये, तो आज वे 2.57 लाख रुपये के बराबर हो चुके हैं. यह धन के समय मूल्य का नियम है, जिसका पालन कम से कम सरकार को तो करना ही चाहिए.

यह मुद्दा आज इसलिए प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि कुछ दिन पहले ही एक आरटीआइ आवेदन से पता चला है कि देश के 29 सरकारी बैंकों ने पिछले तीन वर्षों में 1.14 लाख करोड़ रुपये के ऋण बट्टे खाते में डाल दिए हैं.

इन बैंकों ने उससे पहले के नौ वर्षों में भी इतने ऋण बट्टे खाते में नहीं डाले थे. बता दें कि ऋण बैंकों के लिए आस्तियों का काम करते हैं. उन्हीं से उनकी कमाई होती है. जब किसी ऋण के ब्याज या मूलधन को वापस पाने की गुंजाइश नहीं रह जाती, तो उसे बट्टे खाते में डाल दिया जाता है या तकनीकी रूप से कहें तो राइट-ऑफ कर दिया जाता है.

बैंकों की तरफ से सफाई दी गयी है कि राइट-ऑफ का मतलब यह नहीं है कि हमने उनको वसूल करने की उम्मीद छोड़ दी है. यह असल में एक टेक्निकल शब्दावली है. खातों को साफ करने के लिए ऋण को हेड ऑफिस के स्तर पर बट्टे खाते में डाल दिया जाता है, जबकि शाखा के स्तर पर उनकी वसूली के प्रयास जारी रहते हैं. ऐसा करने से बैंकों को टैक्स बचाने में भी सहूलियत हो जाती है.

नोट करने की बात यह है कि करीब दस साल पहले जब किसानों के 70,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ किये गये थे, तो उन्हें बट्टे खाते में डालने के बजाय बाकायदा सरकारी स्कीम चला कर बैंकों को इसकी भरपाई की गयी थी.

तब तमाम अर्थशास्त्रियों ने बहुत हल्ला मचाया था. लेकिन, आज 1.14 लाख करोड़ रुपये के ऋण बट्टे खाते में डालने पर वित्त मंत्रालय से लेकर अर्थशास्त्रियों तक की तरफ या तो इसे टेक्निकल मसला बता दिया जा रहा है या चुप्पी साध ली गयी है.

आखिर कौन लोग या कंपनियां हैं, जिनको बांटे गये 1.14 लाख करोड़ रुपये के ऋण बट्टे खाते में डाले दिये गये हैं? कम से कम 100 करोड़ रुपये से ज्यादा के बकाया ऋण वालों के नाम तो उजागर किये जायें. रिजर्व बैंक ने आरटीआइ में पूछे गये इस सवाल के जवाब में कहा, ‘मांगी गयी जानकारी हमारे पास उपलब्ध नहीं है.

बैंकों को हमें समेकित आधार पर ही डूबत या खराब ऋणों की जानकारी देना होती है.’ सवाल उठता है कि 15-20 लाख रुपये के लोन पर अखबारों में फोटो छपवा कर नाम-बदनाम या नेम-शेम की नीति अपनानेवाले बैंक खुद बड़े डिफॉल्टरों का नाम क्यों नहीं सार्वजनिक कर देते?

केंद्रीय वित्त मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी का कहना है कि कम से कम दर्जन भर बड़े कॉरपोरेट समूहों से ऋण वसूलने की प्रक्रिया जारी है. उन्होंने अपनी पहचान न जाहिर करते हुए कहा, ‘हमें पता है कि ये उद्योगपति कौन हैं और उन्होंने कितना उधार ले रखा है.

लेकिन अगर हम उन्हें डिफॉल्टर घोषित कर देंगे, तो बाजार में उनका नाम खराब हो जायेगा और ऋण चुकाने के लिए वे अपनी संपत्तियां बेच नहीं पायेंगे.’ लेकिन, उस अधिकारी ने लगे हाथ हल्के से यह भी कह दिया है कि सरकारी बैंकों के ज्यादातर ऋण लघु व मध्यम उद्यमों (एमएसइ) में फंसे हुए हैं. हालांकि, प्रमुख रेटिंग एजेंसी केयर में एसएमइ का विभाग देख रहे एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि छोटी इकाइयों को एक तो बैंकों से बहुत कम ऋण मिलता है. दूसरे, वे ऋण लौटाने में हमेशा मुस्तैद होती हैं. तीसरे, वे उसी हालत में ऋण वापसी में चूक करती हैं, जब उनसे माल लेनेवाली बड़ी कंपनियां उनका भुगतान समय पर नहीं करतीं.

कहानी बड़ी संगीन हो गयी है. बट्टे खाते में डाले गये ऋणों में बैंकों की अनर्जक आस्तियां या एनपीए शामिल नहीं हैं, क्योंकि उनकी वसूली की उम्मीदें अभी बाकी हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर के सी चक्रबर्ती ने ऋण को बट्टे खाते में डालने की इस हरकत को ‘घोटाला’ करार दिया है.

वहीं, रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर रघुराम राजन ने भरोसा जताया है कि मार्च 2017 तक बैंकों की बैलेंस शीट तय कार्यक्रम के मुताबिक दुरुस्त कर ली जायेगी. इस व्यवस्था में निश्चित रूप से गहरी सर्जरी की जरूरत है, लेकिन बीमारी इतनी विकट नहीं है कि उसका इलाज न निकाला सके.

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