ऐसा अक्सर होता है कि जब भी ऐतिहासिक विषयों पर कोई फिल्म बनायी जाती है, तो किसी न किसी की भावना को ठेस पहुंच जाती है. बात चाहे ‘जोधा-अकबर’ की हो या ‘बाजीराव-मस्तानी’ की, इस कड़ी में कई और नाम याद आते हैं, लेकिन मूल बात यह है कि लोग ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग पर अदालत तक पहुंच जाते हैं. ऐसा प्राय: ऐतिहासिक विषयों पर बननेवाली हर फिल्म के साथ होता है.
पता नहीं यह मान्यता और विश्वास का मामला होता है या महज पब्लिसिटी का. याद रहे जब केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर) फिल्म के प्रदर्शन को मंजूरी दे देता है, तो यह व्यर्थ की बहस क्यों? और अगर ऐसी फिल्मों में कुछ ऐसी बात हो, जिससे किसी खास वर्ग को ठेस पहुंचे, तो सेंसर बोर्ड को ध्यान रखना चाहिए, नहीं तो उस पर भी सवाल उठे. -अभिषेक पांडे, निरसा, धनबाद