।। राजीव कुमार।।
(प्रभात खबर, रांची)
दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आये हफ्ता भर से ऊपर हो गया है, लेकिन राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार नहीं बन सकी है. सबके सब नेता से साधु बन गये हैं. जो विरागी मुद्रा पहले जनता की हुआ करती थी, ‘कोउ नृप होइ हमहि का हानी’, वही विरागी मुद्रा अब नेताओं ने अपना ली है. दिल्ली की जनता जो चुनाव में बदलाव के लिए मतदान करने उमड़ी थी, लगता है अब उसे राष्ट्रपति शासन से ही संतोष करना पड़ेगा. कई लोगों को तो यह पछतावा हो रहा है कि बेकार में वोट देने घर से निकल कर ‘छुट्टी’ खराब की.
पाणिनी ने जैसे संस्कृत के पूरे व्याकरण को चंद सूत्रों में बांध दिया है, वैसे ही अगर दिल्ली की मौजूदा स्थिति को एक सूत्र में बांधा जाये, तो कह सकते हैं कि आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस यानी कि ‘ए’, ‘बी’ और ‘सी’ के घनचक्कर में ‘डी’ यानी कि दिल्ली फंस गयी है. दिल्ली के साथ जिन चार अन्य राज्यों में चुनाव हुए, वहां नयी सरकारें बन भी गयी हैं और लोकलुभावन घोषणाएं भी करना शुरू कर चुकी हैं. लेकिन दिल्ली में पहले आप.. पहले आप.. की तर्ज पर भाजपा और ‘आप’ एक दूसरे को सरकार बनाने का अभी न्योता ही दे रही हैं. पहले आप.. पहले आप.. के चक्कर में जनता की नयी सरकार पाने की उम्मीद की गाड़ी छूटती नजर आ रही है. दिल्ली में कीचड़ बहुत जमा हो चुका है, पर न कमल खिल पा रहा है और न ही झाड़ू उसे साफ कर पा रहा है. केजरीवाल जी ऐसी क्लास का मानीटर बनना चाहते हैं जिसके बच्चे उन्हें पहले ही लिख कर दे दें कि वे कोई शरारत नहीं करेंगे. उनकी शर्तो को देख कर यही लग रहा है कि न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी.
अब सवाल उठता है कि क्या दिल्ली को फिर से ‘ई’ यानी कि इलेक्शन (चुनाव) का सहारा लेना पड़ेगा. यानी, एक बार फिर से सरकार का भी खर्च और प्रत्याशियों का भी खर्च. इस खर्च की चिंता दिल्लीवासियों को भी सता रही है. बेचारे जो लोग बिजली का बिल आधा होने और पानी का बिल माफ होने की आशा लगाये बैठे थे, अब उन्हें डर लग रहा है कि कहीं चुनाव का बिल भी उन्हीं के नाम पर न फटे यानी पहले से जो महंगाई रुला रही है, कहीं और ज्यादा न रुलाने लगे. जनता तो खैर ङोलने के लिए ही पैदा हुई है, जरा उनकी सोचिए जिन्हें चुने जाने के बाद शपथ लेने तक मौका नहीं मिल पा रहा है. केजरीवाल जी और उनकी पार्टी के उम्मीदवार तो बेफिक्र हैं, अपील करेंगे और खाते में अपने आप पैसा जमा होने लगेगा. लेकिन ऐसी धन-वर्षा स्कीम अन्य पार्टियों और उनके उम्मीदवारों के पास नहीं है. पता नहीं कहां-कहां से जुगाड़ करके काला-पीला-नीला पैसा जुटाना पड़ता है, तब जाकर चुनाव का खर्च पूरा पड़ता है. वह खर्च वसूल हो पाये, उससे पहले चुनाव.. बचाओ भगवान!