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वंचितों के उत्थान से ही देश का उत्थान
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया भारतीय जनगणना, 2011 के अनुसार, देश में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोगों की संख्या देश की कुल आबादी में 25 प्रतिशत से ज्यादा हो गयी है. इनमें 16.6 प्रतिशत दलित हैं और 8.6 प्रतिशत आदिवासी हैं. ये दो अन्य संज्ञाएं हैं, जिनके द्वारा इन […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
भारतीय जनगणना, 2011 के अनुसार, देश में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लोगों की संख्या देश की कुल आबादी में 25 प्रतिशत से ज्यादा हो गयी है. इनमें 16.6 प्रतिशत दलित हैं और 8.6 प्रतिशत आदिवासी हैं. ये दो अन्य संज्ञाएं हैं, जिनके द्वारा इन समुदायों (जिन्हें अंगरेज अनटचेबल और ट्राइबल कहा करते थे) को संबोधित किया जाता है.
भारत की एक चौथाई आबादी का अर्थ है- तीन सौ मिलियन या तीस करोड़ लोग. अगर ये तीस करोड़ लोग अपने-आप में एक देश होते, तो वह चीन, भारत और अमेरिका के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश होता. लेकिन, हमारी सफेद कॉलरवाली अर्थव्यवस्था में उनकी कोई उपस्थिति नहीं है.
इस पहुंच के अभाव का मुख्य कारण देश में उनके लिए अच्छी शिक्षा और रोजगार के अवसर की ऐतिहासिक कमी है. हालांकि, भारतीय संविधान ने शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के जरिये इसे सुधारने की कोशिश की है. लेकिन, हमारे शहरों के मध्य वर्गीय (जिसका अर्थ होता है ऊंची जाति के लोग) भारतीय महसूस करते हैं कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिलनेवाले आरक्षण से उनके साथ भेदभाव होता है और उनके ‘मेरिट’ की बलि नहीं दी जानी चाहिए.
मैं गारंटी दे सकता हूं कि किसी भी बड़े, शहरी, सफेद कॉलर कार्यालय में दलितों को ग्रेड-1 कर्मचारियों की सूची में पाया जा सकता है. मेरा मतलब है कि इन कर्मचारियों में सफाई करनेवाले शामिल हैं. ये संस्थाएं इस तथ्य को लेकर शर्मिंदगी का भी अनुभव नहीं करती हैं. इन चीजों के बारे में सोचा भी नहीं जाता है. हमारी अर्थव्यवस्था और हमारे मीडिया में दलितों और आदिवासियों को पूरी तरह से हाशिये पर रखा गया है.
मैं यह सब हैदराबाद की घटना के कारण लिख रहा हूं, जहां पिछले दिनों एक दलित छात्र ने आत्महत्या की थी. केंद्र सरकार के दबाव के कारण एक पीएचडी शोधार्थी रोहित वेमुला और चार छात्रों को उनके छात्रावास से निष्कासित कर दिया गया था. मृत्युदंड के मुद्दे पर भाजपा-समर्थित संगठन के साथ उनका झगड़ा हुआ था.
इस पर एक केंद्रीय मंत्री ने इन छात्रों को राष्ट्रद्रोही और जातिवादी (दलितों के विरुद्ध यह विचित्र आरोप है) कहते हुए एक अन्य मंत्री को पत्र लिखा था, जिसके पास शिक्षा का प्रभार है. इस पर मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कुछ ही दिनों के भीतर विश्वविद्यालय को चार पत्र लिख कर छात्रों के विरुद्ध कार्रवाई करने की मांग की थी. यह आश्चर्य का विषय है कि क्या उनका मंत्रालय अपने काम के अन्य पहलुओं में भी ऐसी त्वरा दिखाता है. इस दबाव के बाद छात्रों ने अपना छात्रावासीय ठिकाना और अपनी छात्रवृत्ति खो दी.
रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या से पहले लिखे गये पत्र में बड़ी गरिमा है. महान यूनानी दार्शनिक सुकरात ने मरते हुए देवता एसक्लेपियस के कर्ज को चुकाने का निवेदन किया था. उसी तरह रोहित ने अपने दोस्तों से उसके 40 हजार रुपये के कर्ज को चुकाने का अनुरोध किया है.
उसने यह भी कहा कि उसके ‘शत्रुओं’ को उसके निर्णय के लिए दोष न दिया जाये, लेकिन घटनाक्रम पूरी तरह से स्पष्ट है और इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं है कि उसकी मृत्यु क्यों हुई. अपमान, बेबसी और पैसे के भुगतान से इनकार के कारण उसने आत्महत्या की है.
इस स्पष्टता के कारण ही यह घटना राष्ट्रीय समाचार बनी है. इस घटना का अनभिप्रेत प्रभाव भी हुआ है. अभी तक चली दो मुद्दों- बीफ का उपभोग और मृत्यु दंड- पर बहस अधिकतर सरलीकृत संदर्भों में हुई है. इन्हें हिंदू बहुमत और मुसलिमों तथा ‘उदारवादियों’ के बीच विवाद के रूप में दिखाया गया.
हैदराबाद के हालिया घटनाक्रम इंगित करते हैं कि इन दोनों मामलों में हिंदू मतों में किसी प्रकार की सम्मति या सहमति नहीं है. और यह अनिवार्य रूप से ऊंची जातियों में सहमति का मामला है, जिसे बाकी लोगों पर थोपने की कोशिश की जाती है. दलितों और आदिवासियों में ऊंची जाति के हिंदुओं की तरह बीफ को लेकर कोई परेशानी नहीं है. और मृत्यु दंड के मामले में तो पूरी लोकतांत्रिक दुनिया में बहुमत ही इसका विरोध करता है. दुनिया में कुछ ही देश ऐसे हैं, जो न्याय देने के लिए मृत्यु दंड के तहत अभी भी अपने नागरिकों की हत्या करते हैं.
मेरी उम्मीद है कि रोहित वेमुला के इस बलिदान का एक तीसरा परिणाम भी हो. और वह यह है कि कॉरपोरेट दुनिया और निजी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था इस खौफनाक और रंगभेद जैसे भेदभाव को रेखांकित करे, जो हमारे कार्यालयों में मौजूद है. जिन नौकरियों को हम उच्च वर्गीय लापरवाह ढंग से निश्चित मानते हैं, वे हमें दूसरों को नहीं दिये जाने के कारण मिले हैं.
यह कहना एक झूठ होगा कि भारत में शिक्षा और रोजगार में समान अवसर हैं. सकारात्मक कार्यवाही को स्वेच्छा से करना, जिसका मतलब है दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक पृष्ठभूमि के प्रत्याशियों का जान-बूझ कर चयन करना, हमारे कार्यालयों को अधिक विविधतापूर्ण स्थान बना सकेगा.
बहरहाल, देश के मध्य वर्ग तथा कॉरपोरेट दुनिया के लोगों को एक बात समझ लेनी होगी. भारत के लिए सार्थक ढंग से विकसित हो पाना असंभव है, जब हम दुनिया के चौथे सबसे बड़े देश की आबादी के बराबर लोगों (25 प्रतिशत से ज्यादा की आबादी वाले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग) को प्रगति करने से जान-बूझ कर रोक रहे हैं. उनके उत्थान से ही भारत अंततः अपनी गरीबी और वंचना से उबर सकता है. और हम सभी, चाहे जिस विचारधारा या विचार परंपरा से आते हों, यही चाहते हैं.
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