भारत में मौजूदा मौसम के अतिरेकी तेवर को एक बार फिर महसूस किया जा रहा है. देर से आये ठंड और शीतलहर से उत्तर, पूर्वी और मध्य भारत के इलाके ठिठुर रहे हैं, जबकि सामान्यतः ये दिन जाड़े के उतार के हुआ करते हैं. वहीं, केरल में गरमी के मौसम का प्रवेश हो चुका है. केरल में जनवरी के इन दिनों में विगत दस सालों के अधिकतम तापमान का रिकॉर्ड टूटा है और पारा 35 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है. समुद्री हवाओं के कारण तमिलनाडु में अभी इतनी गरमी नहीं है. पिछले तीन सालों से भारत मौसम में उथल-पुथल से दो-चार हो रहा है.
एक ओर कमजोर मॉनसून से खेती पर खराब असर पड़ा है, वहीं बुंदेलखंड, विदर्भ, तेलंगाना और आंध्र के कई क्षेत्रों में सूखे की स्थिति है. दूसरी तरफ, केदारनाथ, कश्मीर और हाल में चेन्नई में भारी बारिश से आयी बाढ़ से बड़े स्तर पर जान-माल की बरबादी हुई है. उधर, अमेरिका के कई राज्यों में कहर ढा रहा बर्फीला तूफान अब अटलांटिक पार कर इंग्लैंड की ओर अग्रसर है. न्यू यॉर्क और वाशिंगटन समेत कई शहरों में 20 इंच तक बर्फ गिरी है तथा अमेरिका के 11 राज्यों में आपातकाल की घोषणा की गयी है. इस तूफान से कई इलाकों में बाढ़ भी आ गयी है. वर्ष 1869 से रखे जा रहे मौसम के ब्योरे के मुताबिक, अमेरिका में हुई यह इतिहास की तीसरी बड़ी बर्फबारी है. अनेक क्षेत्रों में तो दो फीट से अधिक बर्फ गिरी है. इस तूफान से 8.5 करोड़ लोगों पर असर पड़ा है तथा बिजली, संचार और यातायात व्यवस्था बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गयी है. ब्रिटेन में चेतावनी जारी की गयी है कि कई इलाकों में 50 से 100 मिलीमीटर तक तथा उत्तरी वेल्स, उत्तर-पश्चिमी इंग्लैंड और दक्षिण-पश्चिमी स्कॉटलैंड में 150 से 200 मिलीमीटर तक बारिश हो सकती है.
ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और कनाडा समेत दुनिया के कई देशों में जंगली आग की घटनाएं भी पिछले वर्षों में बढ़ी हैं. दिसंबर में पूरे दक्षिण अमेरिका में सामान्य से बहुत अधिक बारिश से आयी भारी बाढ़ ने कहर ढाया था. चीन में पिछले दिनों भारी बारिश और बाढ़ का तांडव देखा गया. वहीं, अफ्रीका के कई देश भयावह सूखे की चपेट में हैं. वर्ष 2014 में अमेरिका के कैलिफोर्निया और अन्य कुछ इलाकों में भी भयावह सूखा पड़ा था. वैश्विक स्तर पर मौसम के मिजाज में हो रहे खतरनाक बदलाव का सीधा संबंध वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी से है. अल नीनो के अप्रत्याशित असर के कारण 2015 न सिर्फ सर्वाधिक गर्म वर्ष रहा है, बल्कि इस वर्ष मौसम में उथल-पुथल की सबसे ज्यादा मामले भी दर्ज किये गये हैं. हिमालय और हिंदुकुश के इलाकों में लगातार आ रहे भूकंपों ने भी पारिस्थितिक चिंताओं को बढ़ा दिया है. हालांकि, भूकंप की भविष्यवाणी संभव नहीं हैं, पर वैज्ञानिकों का मानना है कि हिमालय और हिंदुकुश में धरती के गर्भ में हो रही हलचलें कभी-भी प्रलयकारी भूकंप में तब्दील हो सकती हैं, जिसके कारण पिछले वर्ष नेपाल की विभीषिका जैसी त्रासदी चीन, अफगानिस्तान दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में भी संभव है.
पिछले साल के आखिर में पेरिस में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन में पूरी दुनिया ने इस बात का संकल्प किया है कि मानवीय गतिविधियों के कारण प्रकृति पर पड़नेवाले कुप्रभावों को अविलंब रोका जाना चाहिए, अन्यथा मानव जाति के अस्तित्व को लंबे समय तक बचा पाना संभव नहीं होगा. मानव जीवन की आवश्यकताओं और विकास की आकांक्षाओं को पूरा करने की आपाधापी में हम न सिर्फ प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र दोहन कर रहे हैं, बल्कि ऊर्जा की बढ़ती खपत से वातावरण में ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा में तेजी से बढ़ोतरी भी कर रहे हैं. तापमान बढ़ने के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिसके कारण समुद्र और नदियों का जलस्तर बढ़ रहा है. कई नदियों से जल के अत्यधिक उपभोग और प्रदूषण से उनका अस्तित्व समाप्त हो रहा है.
जंगल काटे जा रहे हैं. हर वर्ष हजारों प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं. ऐसे में पारिस्थितिक संतुलन भी अव्यवस्थित हो गया है. हालांकि, भूकंप की त्रासदी तापमान से सीधे स्तर पर नहीं जुड़ी है, पर इस कारण सुनामी और बाढ़ के खतरे संभावित हैं. खनन, भू-जल दोहन, पहाड़ों में निर्माण, वन संपदा को नष्ट करना, समुद्री जल स्तर का बढ़ना आदि ऐसे कारक हैं, जो अप्रत्यक्ष तौर पर धरती के आंतरिक संतुलन को प्रभावित करते हैं. ऐसे में अब समय आ गया है कि पूरी दुनिया विकास की दशा और दिशा पर आत्मचिंतन करे और उसमें अपेक्षित संशोधन करे. प्रकृति के कारण ही हमारा अस्तित्व है. उसे संभालना और सुरक्षित रखना हमारे अस्तित्व की आधारभूत शर्त है.