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1 बनाम 99 फीसदी
दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के पास शेष 99 फीसदी आबादी के बराबर संपत्ति है. स्वयंसेवी संस्था ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट के मुताबिक, वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक धनी 62 लोगों के पास 50 फीसदी निर्धनतम आबादी के बराबर संपत्ति है. ध्यान रहे कि 2010 में 388 सबसे धनवान लोगों के पास सबसे गरीब 50 […]
दुनिया के सबसे अमीर एक फीसदी लोगों के पास शेष 99 फीसदी आबादी के बराबर संपत्ति है. स्वयंसेवी संस्था ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट के मुताबिक, वैश्विक स्तर पर सर्वाधिक धनी 62 लोगों के पास 50 फीसदी निर्धनतम आबादी के बराबर संपत्ति है. ध्यान रहे कि 2010 में 388 सबसे धनवान लोगों के पास सबसे गरीब 50 फीसदी लोगों के बराबर मिल्कियत थी.
भारत में भी स्थिति इससे भिन्न नहीं है. पिछले वर्ष अक्तूबर में जारी क्रेडिट स्विस की रिपोर्ट में बताया गया था कि सबसे धनी एक फीसदी भारतीयों के पास देश की कुल संपत्ति में 53 फीसदी हिस्सेदारी है और सबसे धनी 10 फीसदी लोगों के पास यह हिस्सेदारी 76.30 फीसदी है. जबकि, वर्ष 2000 में सर्वाधिक धनी एक फीसदी भारतीयों की हिस्सेदारी 36.80 और सबसे धनी 10 फीसदी लोगों की हिस्सेदारी 65.9 फीसदी थी.
यानी, आर्थिक विषमता साल-दर-साल न सिर्फ बढ़ रही है, बल्कि संपत्ति कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित होती जा रही है. अनेक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि धनिकों की संपत्ति में बेतहाशा वृद्धि का मुख्य कारण सरकार द्वारा दी जानेवाली विशेष रियायतें और निजीकरण को बढ़ावा देनेवाली नीतियां हैं, जो कि बाजार अर्थव्यवस्था के आधारभूत तत्व हैं. कुछ वर्ष पूर्व संसद की वित्तीय स्थायी समिति ने अपनी 59वीं रिपोर्ट में आर्थिक विकास की रणनीति की आलोचना करते हुए कहा था कि इससे अधिकांश आबादी का बहिष्करण हो रहा है तथा गिने-चुने लोगों को लाभ हो रहा है.
अर्थशास्त्री प्रो अमर्त्य सेन ने वर्षों पहले जीडीपी, आय वृद्धि, औद्योगीकरण, तकनीक या आधुनिकता जैसे कारकों से ही विकास को निर्धारित करने की आलोचना करते हुए लिखा था कि विकास को राजनीतिक स्वतंत्रता, आर्थिक सुविधाओं, सामाजिक अवसर, पारदर्शिता तथा संरक्षा जैसे तत्वों पर आधारित होना चाहिए. अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने बढ़ती विषमता को नियंत्रित करने के लिए पूंजी पर वैश्विक कर लगाने तथा प्रगतिशील कर सुधार के जरिये पुनर्वितरण की सलाह दी है. करीब पांच दशक से चली आ रहीं नव उदारवादी नीतियां अब कमोबेश पूरी दुनिया में लागू हैं.
इसका तर्क है कि बाजार के नेतृत्व में ही आर्थिक विकास संभव है तथा पहले शीर्ष पर संपत्ति बढ़ेगी, जिसका क्रमिक रिसाव निचले स्तरों तक होगा. पर, ऐसा नहीं हो सका है. बढ़ती आर्थिक विषमता के साथ उत्पादन के साधनों व संसाधनों पर नियंत्रण, सामाजिक असंतोष व अशांति तथा पर्यावरण संकट जैसे मुद्दे भी जुड़े हुए हैं. ऐसे में वैश्विक स्तर पर आर्थिक संरचना के पुनर्गठन और नीतिगत संशोधनों की महती आवश्यकता है.
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