समोसा-भुजिया का यह दुखात्मक हास्य एक ऐसे समय में आया है, जब लालू-नीतीश सरकार की कुछ चमक खो रही है, जिसका कारण निश्चित रूप से मजेदार नहीं है. राज्य में अपराध की प्रतिशोधात्मक वापसी हुई है.
राजनीति में कोई बदला समोसे के बदले से अधिक कठोर नहीं है. हरेक राजनेता को यह बात तो पता है ही. लेकिन, आश्चर्य है कि चुनावी लड़ाइयों तथा प्रशासन के धुरंधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके बुजुर्ग, ‘सुपर मुख्यमंत्री’ लालू यादव लोकतंत्र के एक बुनियादी सिद्धांत को भूल गये है. कभी भी गरीबों की थाली में से लेकर राजकोष भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. गरीबों के पास ऐशो-आराम की गुंजाइश न के बराबर है, और एक मुश्किल दिन में शाम में एक सस्ता पकवान खाना उनके आनंद के कुछ क्षणों का हिस्सा है. बजट के मुहावरे में ‘सिन टैक्स’ नामक एक चीज होती है, जो सरकार के स्रोत का नियमित आधार होती है. यह टैक्स शराब और सिगरेट जैसी चीजों पर लगाया जाता है. किसी पवित्र मनोदशा में आप इस ‘सिन’ के दायरे को महंगे होटलों जैसी ऐशो-आराम की चीजों तक बढ़ा सकते हैं. लेकिन कोई भी वित्त मंत्री, जो होशो-हवास में है, बीड़ी से पैसा निकालने की कोशिश नहीं करता है.
कुछ ही दिन पहले सत्ता में लायी गयी सरकार से बिहार के मतदाता इतनी जल्दी नाराज नहीं हो सकते हैं, पर समोसे-भुजिया पर 13.5 फीसदी का वैल्यू-एडेड टैक्स लगाने से नाराजगी से भी अधिक खतरनाक चीज- उपहास- के लिए माहौल बन सकता है. व्यंग्य (इसे बिहारियों से बेहतर कोई नहीं कर पाता है), वर्ग, संप्रदाय और जाति की परिधि से परे होगा, क्योंकि सभी के लिए समोसा प्रिय है, वह सही मायने में जन-उपभोग की वस्तु है. भारतीयों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बहुत पहले ही फास्ट फूड का अविष्कार कर लिया था. हमारे पास फास्ट फूड को एक गृह उद्योग बनाने की अच्छी समझ भी थी. यह एक ऐसा व्यापार है, जिससे एक गरीब आदमी भी अपनी जीविका चला सकता है. इनके उत्पादक और उपभोक्ता सामान्यतः एक ही सामाजिक-आर्थिक परिक्षेत्र से होते हैं. नीतीश कुमार और लालू यादव को इसका दंश साझा तौर पर सहना होगा, क्योंकि इस निर्णय की जड़ निर्विवाद रूप से मुख्यमंत्री के कार्यालय में है, पर बिहार के वित्त मंत्री लालू यादव की पार्टी से हैं. यह एक ऐसा मौका है जब लालू यादव निजी तौर पर नीतीश कुमार के सार्वजनिक कार्यों के लिए मुंह दबा कर नहीं हंस सकते हैं.
समोसे का बदला बहुत जल्दी सामने भी आ गया, और नीतीश कुमार अब राजनीतिक अपराध के प्रभाव को कम करने के लिए कह रहे हैं कि उनका उद्देश्य सिर्फ महंगे डिब्बाबंद समोसे पर टैक्स लगाना था. अब यह बाद में आया बयान असर नहीं करेगा, बल्कि इस कदम के पीछे का विचार ही बचा रहेगा. अब यह संशोधन निश्चित रूप से टालमटोल है, क्योंकि इस दंडात्मक सूची में भुजिया भी शामिल है.
यह मामला अजीब से अजीबतर होता जा रहा है. आखिर मच्छर भगानेवाली मशीन पर टैक्स क्यों? मच्छर तो मतदान नहीं करते हैं. और, कई बार वे घातक भी हो सकते हैं. यह भी है कि इस निर्णय से यह जाहिर होता है कि मच्छर भगानेवाली मशीन का बिहार में बड़ा बाजार है, और सरकार को इससे बड़ी आमदनी की उम्मीद है. सिर्फ पटना से वसूला गया राजस्व ही किसी भारी-भरकम विभाग का खर्च उठा सकता है. राज्य में मच्छरों की भरमार है. यह भी समान रूप से जाहिर है कि बिहार में बहुत अधिक उद्योग नहीं है, जिससे सरकार कर राजस्व एकत्र कर सके, और कुछ ऐसा बचा नहीं है जिस पर कर लगाया जा सके. इसीलिए, सरकार अपनी पूर्ववर्ती खामियों से ही मुनाफा कमाने की कोशिश कर रही है. मच्छरों की तरह ये बातें भी तेजी से फैलेंगी.
यह देख कर आश्चर्य होता है कि ऐसी मूर्खतापूर्ण गलतियां अनुभवी लोगों से कैसे हो जाती है, चाहे वे राजनीति में हों या नौकरशाही में. ऐसा इसलिए हो सकता है, क्योंकि उन्हें सत्ता में रहते न तो समोसे के लिए पैसा देना होता है, न ही भुजिया के लिए. दोपहर के बाद चाय-नाश्ते का खर्च प्रशासनिक बजट से आता है.
समोसा-भुजिया का यह दुखात्मक हास्य एक ऐसे समय में आया है, जब लालू-नीतीश सरकार की कुछ चमक खो रही है, जिसका कारण निश्चित रूप से मजेदार नहीं है. राज्य में अपराध की प्रतिशोधात्मक वापसी हुई है, क्योंकि अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिल रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में भय का माहौल बढ़ रहा है. अधिकारियों को समानांतर लालू यादव नेटवर्क से आदेश दिया जा रहा है, और वे इस बात को बेहतर समझते हैं कि असली सत्ता कहां है. समोसे का बदला भले ही नियंत्रित कर लिया गया हो, पर याद और अनुभव से प्रेरित वातावरण में समोसा नीतीश कुमार की छवि को नुकसान पहुंचाने में महत्वपूर्ण सहायक भूमिका निभा रहा है.
एमजे अकबर
राज्यसभा सांसद, भाजपा
delhi@prabhatkhabar.in