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दुविधा के दौर से गुजरती बातचीत

पुष्परंजन ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक विदेश सचिव स्तर की बातचीत के लिए इसरार और इनकार में अब चंद घंटे बाकी हैं. लेकिन, ऐसा संदेश क्यों जा रहा है कि यह बातचीत अमेरिका के दबाव में होने जा रही है? बैंकाक में भारत-पाक के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मिलते हैं, अमेरिका उसका ‘वेलकम’ करता है. […]

पुष्परंजन
ईयू-एशिया न्यूज के
नयी दिल्ली संपादक
विदेश सचिव स्तर की बातचीत के लिए इसरार और इनकार में अब चंद घंटे बाकी हैं. लेकिन, ऐसा संदेश क्यों जा रहा है कि यह बातचीत अमेरिका के दबाव में होने जा रही है? बैंकाक में भारत-पाक के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मिलते हैं, अमेरिका उसका ‘वेलकम’ करता है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ‘हार्ट आॅफ एशिया’ सम्मेलन में इसलामाबाद जाती हैं, अमेरिका की तरफ से उसका ‘वेलकम’ होता है. प्रधानमंत्री मोदी अचानक लाहौर उतरते हैं, उसका भी अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ओर से ‘वेलकम’ होता है. और अब भारत-पाक विदेश सचिवों की बातचीत का ‘वेलकम’ करने के लिए वाशिंगटन में गजब का उतावलापन है.
अमेरिका ‘वेलकम कूटनीति’ के बुलेट ट्रेन पर इस कदर सवार है कि उसे तीन जनवरी को मजार-ए-शरीफ स्थित भारतीय कौंसिलावास पर हुआ हमला नहीं नजर आता, जिसमें पाकिस्तानी सेना के लोग शामिल थे. इसकी पुष्टि यदि बाल्ख प्रांत के पुलिस प्रमुख सैयद कमाल सादत कर रहे हैं, तो वह बेबुनियाद नहीं है.
पठानकोट हमले के बाद, जिस तरह का माहौल बना है, उसका एक सकारात्मक ‘साइड इफेक्ट’ यह है कि इस बार कम-से-कम हुर्रियत कार्ड नहीं खेला जा रहा है. इससे पहले पाक उच्चायुक्त अब्दुल बासित अमूमन हुर्रियत नेताओं से मिल कर वार्ता में विघ्न पैदा करते रहे हैं. शायद, इस बार एंबेसडर बासित को शह-मात का अवसर नहीं मिल पा रहा है.
इस बातचीत से दो दिन पहले गौतम बंबावाले का नये उच्चायुक्त के रूप में पाकिस्तान जाना, दर्शाता है कि गाड़ी अभी पटरी से उतरी नहीं है. बंबावाले अनुभवी राजनयिक हैं, चीन में राजदूत रहते जिस तरह से उन्होंने कूटनीतिक कामयाबी हासिल की थी, संभवतः उसका लाभ उन्हें इसलामाबाद में मिले. इस समय चीन जिस शिद्दत से सीपीइसी (चाइना-पाकिस्तान इकोनाॅमिक काॅरीडोर) के लिए सक्रिय हुआ है, उसकी बारीकियों को एंबेसडर बंबावाले बेहतर समझ सकते हैं.
चीन, शिंचियांग के काशगर से ‘गुलाम कश्मीर’ होते हुए बलूचिस्तान के ग्वादर तक 2 हजार 442 किलोमीटर लंबे जिस आर्थिक गलियारे की आधारशिला रख रहा है, उससे क्या सिर्फ पंजाब और बलूचिस्तान को फायदा पहुंचेगा, यह इस समय पाकिस्तान में बहस का विषय है.
प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह गुजरात को संपन्न देखते रहना चाहते हैं, उसी तरह नवाज शरीफ की प्राथमिकता पंजाब की खुशहाली रही है. ‘सीपीइसी’ के जरिये यह सपना साकार होना है, जिसकी सुरक्षा के लिए पाक सेना की दो डिवीजनें पूरी तरह से समर्पित हंै, इसे टू स्टार जनरलों के जिम्मे लगाया गया है.
चीन ने यही शर्त रखी थी कि ‘सीपीइसी’ की सुरक्षा सुनिश्चित करें, फिर आर्थिक गलियारे पर पैसे लगायेंगे. 46 अरब डाॅलर के इस आर्थिक गलियारे से सड़क, अधोसंरचना, जल विद्युत, सौर ऊर्जा पार्क और उद्योगों का विकास होगा, यहां तक तो बात हजम हो जाती है. लेकिन नवाज शरीफ सरकार जिस तरह गिलगिट और स्कार्दू के 155 किलोमीटर वाले हिस्से में रेल, सड़क बनाने के लिए चीन को हरी झंडी दे चुकी है, इसके लिए भारत से पूछना मुनासिब क्यों नहीं समझा गया?
नार्दर्न एरिया गिलगिट-बाल्टिस्तान ऐसे विवादित क्षेत्र हैं, जिसके बारे में तय होना बाकी है कि इनमें से चीन, पाक और भारत के हिस्से कितनी जमीनें आती हैं. इस विषय पर 26 कश्मीरी संगठनों का गंठबंधन ‘आॅल पार्टी हुर्रियत काॅन्फ्रेंस’ की चुप्पी हैरान करती है. हुर्रियत नेता अब्दुल गनी भट्ट की सोच दिलचस्प है कि चीन की मदद से कश्मीर का राजनीतिक समाधान संभव है. मुराद यह कि चीन जो कुछ पाक अधिकृत कश्मीर में कर रहा है, उसका विरोध हुर्रियत न करे. भारत सरकार अबतक ‘चाइना-पाकिस्तान इकोनाॅमिक काॅरीडोर’ को लेकर क्या कर रही है? बंबावाले शायद जल्द ही देश को यह बतायेंगे!
15 जनवरी को होनेवाली भारत-पाक बातचीत को लेकर देश दुविधा के दौर से गुजर रहा है. ऐसी दुविधा शायद पहले कभी नहीं देखी गयी. सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक लोगों के विचार बंटे हुए हैं. कई वरिष्ठ भाजपा नेता भी बातचीत के सवाल पर एकमत नहीं हैं. सरकार में शामिल शिवसेना भी बातचीत की घोर-विरोधी है. कोलकाता में गुलाम अली के गजलों से यह न मान लें कि स्थिति सामान्य हो गयी है.
देश की राजनीति ‘इनके समय का आतंकवाद’ और ‘हमारे समय का आतंकवाद’ में उलझी हुई है. कांग्रेस में गरम सोच के नेता इससे गौरवान्वित हैं कि हमने 1971 में पाकिस्तान को चीर कर रख दिया था. ‘यूपीए-2’ इसका भी क्रेडिट लेना चाहती है कि 21 नवंबर, 2012 को अजमल कसाब को सजा-ए-मौत देकर मुंबई हमले और फरवरी, 2013 में अफजल गुरु को फांसी पर लटका कर हमने संसद पर हमले का हिसाब किया था. पाकिस्तान में आतंक निरोधक अदालत (एटीसी) में जकी-उर-रहमान लखवी समेत जिन सात अभियुक्तों पर 26/11 मुंबई हमले का मामला चल रहा है, यूपीए-2 के नेता यह कहते नहीं अघाते कि मनमोहन सरकार के दबाव के कारण यह संभव हो पाया.
दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी के प्रशंसक यह माहौल बनाते दिख रहे हैं कि पहली बार हमारी सरकार के दबाव के कारण नवाज शरीफ ने पठानकोट हमले के दोषियों को पकड़ने के लिए आतंक निरोधी दस्ते को दक्षिणी प्रांत गुजरांवाला, झेलम और बहावलपुर में सक्रिय किया है. क्या श्रेय लेने, और दोष देने की बीमारी से बचा नहीं जा सकता है?
पठानकोट हमले को लेकर पाक मीडिया और वहां के प्रेक्षकों का बड़ा हिस्सा इस समय दहशतगर्दों के विरुद्ध है. डाॅ हसन अस्करी रिजवी जैसे विश्लेषक लिखते हैं कि यदि इसकी पुष्टि होती है कि आजाद कश्मीर में सक्रिय गुट या जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी इसमें शामिल थे, तो उन्हें पकड़ने में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए. ऐसे लोग कल को सरकार को नियंत्रित करने लगेंगे. ऐसे तत्व भारत-पाक के बीच दुश्मनी की आग को धर्म के नाम पर हवा दे रहे हैं, जो बंद होनी चाहिए. अशरफ जहांगीर काजी जैसे राजनयिक भी बातचीत को पटरी से उतरते देखना नहीं चाहते. ऐसे माहौल के लिए भारत ने यदि कूटनीतिक कुशलता का परिचय दिया है, तो उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए.पाकिस्तान इस बार बुरा फंसा है.
बुधवार को क्वेटा में आत्मघाती हमले में 15 की मौत, और 13 जनवरी को ही काबुल स्थित पाक वाणिज्य दूतावास पर हमले में एक पाक कूटनीतिक समेत पांच अफगान सुरक्षाकर्मियों की शहादत ने संदेश दिया है कि नवाज शरीफ आतंकवाद से पैदा दर्द को समझें. दक्षिणी प्रांत में जैश-ए-मोहम्मद के दफ्तरों में छापेमारी, कुछ गिरफ्तारियां मात्र से मेज पर बैठने का माहौल नहीं बनता. पाकिस्तान को फिर भी मौलाना मसूद अजहर को पकड़ने के लिए मजीद सोच चाहिए.

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