लोकसभा सांसद सुप्रिया सुले के इस बयान पर, कि सदन में लंबी चर्चाओं से ऊबे हुए सांसद आपस में गपशप करने लगते हैं और एक-दूसरे के पहनावे जैसे हल्के-फुल्के विषयों पर बात करते हैं, एक अजीब सी बहस छिड़ गयी है.
बीते दिन एक समारोह में सुले ने कहा था कि लोगों को लगता है कि सदन में सांसद आपस में अहम चर्चा करते हैं, लेकिन जब भाषणों में वही बातें दोहराई जाती हैं, तब हमेशा ऐसा नहीं होता. उनका कहना था कि वह पहले तीन भाषण तो सुनती हैं, पर चौथे भाषण तक सदस्य पूर्व वक्ताओं की बातें ही दोहराने लगते हैं. ऐसे में कक्षाओं में बैठे विद्यार्थियों की तरह ही सांसद भी इधर-उधर की बातें करने लगते हैं.
सुप्रिया का बयान एक आइना है जो दर्शाता है कि चर्चा में भाग लेनेवाले सांसद पूरी तैयारी के साथ अपनी बात नहीं रखते, जिससे सदन में बहस की गुणवत्ता और रोचकता कम हो रही है. लेकिन, इस बयान पर आ रही प्रतिक्रियाएं इसे दूसरा अर्थ देकर हकीकत से मुंह चुराती प्रतीत हो रही हैं. एक नेता ने कहा कि ऐसेे बयान से गंभीर सांसदों की छवि खराब हो सकती है, तो एक मंत्री ने कहा कि सुप्रिया का संदेश एक अन्य पार्टी की नेता के लिए है! ध्यान रहे, लोग संसद की कार्यवाही इस उम्मीद से देखते हैं कि उनके जनप्रतिनिधि चर्चा के जरिये उनकी दुख-तकलीफें कम करने की राह तलाशेंगे.
लेकिन, बीते कुछ वर्षों में संसदीय कार्यवाही का बड़ा हिस्सा हंगामे और शोरगुल की भेंट चढ़ने लगा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं. कार्यवाही में बाधा डालनेवाले सांसदों को तब संसद या सांसदों की गरिमा का ख्याल नहीं आता. विगत शीतकालीन सत्र में राज्यसभा के कामकाज के लिए निर्धारित 112 घंटों में से 55 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ गये.
सदन की कार्यवाही को चलाने में प्रति मिनट करीब 29 हजार रुपये का खर्च बैठता है. संसद ही नहीं, विधानसभाओं में भी सारगर्भित बहस के घंटे लगातार कम होते जा रहे हैं. कार्यवाही के दौरान सांसदों-विधायकों को झपकी लेते या आपस में बातचीत करते हुए देखा जा सकता है. जनहित के महत्वपूर्ण विधेयक भी अब बिना चर्चा के पारित होने लगे हैं.
यह स्थिति लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से बेहद चिंताजनक है. सुप्रिया सुले के बयान के बहाने ही सही, होना तो यह चाहिए था कि सदन में भाषणों की बोरियत दूर करने की कोई राह तलाशी जाती तथा बहस को अधिक तथ्यपरक एवं रोचक बनाने पर विचार किया जाता.