किसी भी राज्य में संचालित कंपनियों को अपने लाभ का पांच फीसदी हिस्सा स्थानीय क्षेत्र के विकास पर खर्च करना है. यह कोई नयी बात नहीं है. वर्ष 1977 में ही सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि खनन क्षेत्रों में काम कर रही कंपनियों को अपनी शुद्ध आय का 20 फीसदी हिस्सा संबंधित इलाके के विकास पर खर्च करना होगा.
आंध्र प्रदेश और ओड़िशा के आदिवासी बहुल इलाकों व खनन क्षेत्रों में इसे लागू किया गया है. लेकिन विडंबना यह है कि आदिवासी हितों को लेकर गठित झारखंड की सरकारें राज्य गठन के 13 वर्ष बाद भी इस कानून का सख्ती से पालन नहीं करा पायीं.
हालात यह है कि खनिज संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद स्थानीय लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है. शीर्ष न्यायालय ने यह भी कहा था कि लघु खनिजों पर ग्राम सभा का अधिकार होगा. बावजूद इसके बालू जैसे लघु खनिज पर ग्राम सभा को अधिकार नहीं दे पाना समझ से परे है.
यह सत्ता के विकेंद्रीकरण और पंचायतीराज की अवधारणा के सिद्धांतों के प्रतिकूल भी है. संताल परगना में कोयला खनन में जुटी कंपनियां भी अपने इस दायित्व का निर्वहन संजीदगी से नहीं कर रही हैं. कई बार राजनीतिक दलों ने इस मामले को उठाया भी, लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ है. राज्य सरकार यह कहती है कि हमें हमारे खनिज संसाधनों पर केंद्र पर्याप्त रॉयल्टी नहीं देता है जिससे प्रदेश का विकास बाधित हो रहा है. रॉयल्टी तय करना केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आता है.
लेकिन राज्य सरकार को अपने प्रदेश में काम कर रही कंपनियों के लिए सामाजिक दायित्वों के अनुपालन तय करने संबंधी कानून बनाने में तो कोई अड़चन नहीं है. तो फिर इस मामले में इतनी देर क्यों हो रही है? उद्योग विभाग ने प्रदेश में कई कंपनियों से पिछले तीन वर्ष की आय और सीएसआर के तहत खर्च की गयी राशि का ब्योरा मांगा है. कंपनियों के सीएसआर (कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी) पर नजर रखना राज्य सरकार का काम है.
इस मद की राशि को ग्राम सभा के माध्यम से खर्च किया जाना है. लगता नहीं है कि प्रदेश में ऐसा किया जा रहा है. कंपनियों के जवाब का इंतजार किया जाना चाहिए. खैर, वर्तमान सरकार ने सीएसआर को लेकर कंपनियों पर नकेल कसनी शुरू की है.