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‘कामकाजी संसद’ से जुड़े प्रश्न

पवन के वर्मा सांसद एवं पूर्व प्रशासक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये साल की शुरुआत सकारात्मक पहल के साथ की है. उन्होंने कांग्रेस से, और समूचे विपक्ष से, देश के विकास के लिए संसद को चलने देने और इसे ‘राजनीतिक कारणों से’ बाधित नहीं करने का निवेदन किया है. हमारी राजनीति के सभी पक्षों को […]

पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये साल की शुरुआत सकारात्मक पहल के साथ की है. उन्होंने कांग्रेस से, और समूचे विपक्ष से, देश के विकास के लिए संसद को चलने देने और इसे ‘राजनीतिक कारणों से’ बाधित नहीं करने का निवेदन किया है. हमारी राजनीति के सभी पक्षों को इस निःसंदेह अच्छी भावना पर आत्मविचार करना चाहिए.
मेरी राय में, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री विपक्ष से सोच-समझ कर राजनीतिक विस्मरण के नितांत नये क्रांतिकारी रूप को गढ़ने की अपेक्षा कर रहे हैं. उसे यह बिल्कुल भूल जाना चाहिए कि सत्ता में आने से पहले भाजपा ने जान-बूझ कर नीतिगत तौर पर पिछली संसद का 40 फीसदी समय बरबाद किया था.
उसे यह भी भूल जाना चाहिए कि भाजपा की ओर से दोनों सदनों में प्रतिपक्ष के नेता ऐसी रणनीतियों को सही ठहराने के लिए सैद्धांतिक कारण दिया करते थे, और उन्होंने यहां तक कह दिया था कि संसद को बाधित करना ‘लोकतांत्रिक सक्रियता’ का एक वैधानिक रूप है. यह भी भूल जाना चाहिए कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने यूपीए सरकार के मंत्रियों के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के मामलों में राजनीति को एक विस्फोटक सरलीकरण में बदल दिया था- पहले इस्तीफा, बाद में बहस.
उसे यह भी भूला देना चाहिए कि यूपीए के अनेक मंत्रियों ने अपने विरुद्ध किसी आरोप के सही साबित हुए बिना भी इस्तीफा दे दिया था. और, उसे यह भी भूल जाना चाहिए कि अब जबकि भाजपा के मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, तो भाजपा का उत्तर यह है कि वह मामले पर ‘चर्चा’ के लिए तैयार है और इस्तीफे या जांच या कोई कदम उठाने का सवाल ही नहीं उठता.
विस्मरण का दायरा इससे आगे बढ़ाया जाना चाहिए. संसद में मौजूदा विपक्ष को यह भी भूल जाना चाहिए कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने तीन सालों तक जीएसटी विधेयक को लटका कर रखा हुआ था, और ऐसा इसलिए किया गया था कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री इस विधेयक के विरुद्ध थे. आज संसद में लगभग सर्वसम्मति है कि जीएसटी विधेयक को पारित किया जाये. लेकिन, मतभेद के बाकी तीन बिंदुओं पर समझौते के लिए सत्तापक्ष को कुछ अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है.
क्या शीतकालीन सत्र से पहले उसकी ओर से विपक्ष को भरोसे में लेने की समुचित और गंभीर कोशिश की गयी? क्या शीतकालीन सत्र के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष को ‘चाय पर आमंत्रण’ बहुत देर से की गयी बहुत थोड़ी पहल नहीं थी और उसे आगे ले जाने की कोई समुचित कार्यवाही भी नहीं की गयी? लेकिन, इस तरह के सवाल पूछने से प्रधानमंत्री को नाराजगी हो सकती है, जिन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि सारी गलती विपक्ष की ही है.
प्रधानमंत्री की ‘कामकाजी संसद’ की उच्चकोटि की दृष्टि को अमलीजामा पहनाने के लिए विपक्ष को क्षमा, स्वीकार और सहिष्णुता के गुणों को भी आत्मसात करना होगा. उसे उन मंत्रियों को माफ कर देना चाहिए, जो हमारी राजनीति के बुनियाद पर ही सवाल उठानेवाले अतिवादी बयान देते हैं.
साध्वी निरंजन ज्योति के खतरनाक बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी जानी चाहिए, जिंदा जला दिये गये दलित बच्चों की असंवेदनशील तुलना कुत्ते से करनेवाले जनरल वीके सिंह के बयान को बरदाश्त कर लेना चाहिए, डॉ महेश शर्मा के इस बयान के प्रति कि पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम मुसलिम होने के बावजूद एक अच्छे व्यक्ति थे, शांत सहिष्णुता दिखानी चाहिए, भाजपा सांसद साक्षी महाराज द्वारा गोडसे को शहीद कहे जाने और उसके मृत्युदंड को ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाने के सुझाव को चुपचाप माफ कर देना चाहिए, और भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों द्वारा आये दिन दिये जानेवाले बयानों को बिना किसी सवाल के स्वीकार कर लेना चाहिए जिनमें कहा जाता है कि भारत को एक विशुद्ध हिंदू राष्ट्र बनाना है, जबकि अपढ़ दक्षिणपंथी नैतिक पुलिस मनमानी करती रहती है, और हिंदू होने या देशभक्त होने की उसकी उथली समझ का विरोध करनेवालों की हत्या तक कर दी जाती है.
विपक्ष को अपनी आंखें भी बंद कर लेनी चाहिए और सरकार के एजेंडे के अनुरूप संसद को चलते रहने देना चाहिए, भले ही भाजपा द्वारा नियुक्त अरुणाचल प्रदेश जैसे संवेदनशील प्रांत का राज्यपाल खुलेआम संविधान का मजाक बनाये. दिल्ली की शकूरबस्ती में लोगों के पुनर्वास की परवाह किये बिना जब रेल विभाग गरीबों की झुग्गियां उजाड़े, तब विपक्ष को इसका विरोध नहीं करना चाहिए. पंजाब में सत्ताधारी अकाली दल से कथित रूप से संबद्ध प्रभावशाली लोगों द्वारा अपने फार्म हाउसों में दलितों को मारे जाने और उनका अंग-भंग किये जाने पर भी विपक्ष को संसद चलते रहने देना चाहिए.
उसे एक भले स्कूली बच्चे की तरह व्यवहार करना चाहिए, भले ही गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों को निशाना बनाया जाये और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे भाजपाई मुख्यमंत्री मजे से अपना काम करते रहें, मानो कुछ हुआ ही नहीं है. महंगाई, आर्थिक संकट, किसानों की आत्महत्या, और आर्थिक कुप्रबंधन तथा विदेश नीति की खामियों पर कभी भी अपना मुंह नहीं खोलना चाहिए.
संसद निश्चित रूप से चलनी चाहिए. कोई भी हंगामे से लगातार बाधित संसद का पक्षधर नहीं हो सकता है. लेकिन, इससे जुड़े कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी हैं जिनका जवाब दिया जाना चाहिए.
‘कामकाजी संसद’ की परिभाषा क्या है? क्या यह सिर्फ वह जगह है, जहां सरकार द्वारा जल्दबाजी में लाये गये विधेयकों के अलावा कोई और मुद्दा नहीं उठाया जाता है? क्या ‘विकास’ के तथाकथित लक्ष्य, जिसके बारे में सरकार की यह गलत समझ है कि इसमें उसके मतलब के मसलों के अलावा अन्य बातें शामिल नहीं हैं, में संतुलित आर्थिक विकास शामिल है?
प्रधानमंत्री ने बड़े राजनेता की तरह संसद को चलने देने का बयान दिया है. अगर हम इस विडंबना को दरकिनार भी कर दें कि यह आग्रह उस पार्टी के नेता की तरफ से आया है, जो संसद को बाधित करने और उसे जायज ठहराने की कला में सिद्धहस्त है, प्रधानमंत्री को यह भी समझना चाहिए कि संसद को सुचारु रूप से चलाने की जवाबदेही उतनी ही सरकार के ऊपर भी है, जितनी कि विपक्ष पर.
अगली बार जब प्रधानमंत्री संसद में विपक्ष द्वारा पीड़ित दिखाई दें, तो शायद वे अधिक वस्तुनिष्ठ रूप से विपक्ष को भरोसे में लेने की सरकार की क्षमता का आकलन कर सकेंगे, और साथ ही संसद में मतभेद पैदा करने में उनके अपने कार्यों तथा अपनी सरकार, उसके मंत्रियों और पार्टी के सांसदों की भूमिका का भी अवलोकनकर सकेंगे.

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