चौबीस घंटे बिजली-पानी. चौड़ी सड़कें और ड्रेनेज-सीवरेज का बेहतरीन सिस्टम. गजब का सिविक और ट्रैफिक सेंस. नर्सरी से लेकर तमाम प्रोफेशनल डिग्रियों की पढ़ाई के आला इंतजाम. शहर की इसी बेहतर जिंदगी की खातिर बंदे ने कस्बाई दुनिया छोड़ दी. उसके साथ एक अदद पत्नी और बेटी भी है. मगर, कुछ ही दिनों में सपने ढह गये. एक एलआइजी कॉलोनी में कोठरीनुमा दो कमरे का मकान छह हजार रुपये माहवार किराये पर मिला. बिजली-पानी का डेढ़ हजार अलग से. शर्त है कि नॉनवेज बनाओ तो एक बड़ी कटोरी मकान मालिक को भेजना जरूरी. बंदे को मंजूर है. रोज मुर्गा हांडी पर तो चढ़ता नहीं है.
घर से चौराहा दो सौ मीटर दूर है. गड्ढों में से गुजरती सड़क. दुल्हन की तरह संभल-संभल कर पैर रखो. चौराहे पर गजब हाल है. बसों और ऑटो में ठूंसे लोगों को देख कर बाड़े में भेड़-बकरियां याद आयी. बामुश्किल ऑटो मिला. किराया डबल. बंदे ने घड़ी देखी. ओह, पंद्रह मिनट लेट, जुगाड़ से मिली नौकरी और पहला दिन! मरता क्या न करता. चल भाई. नामी स्कूल में दाखिले के लिए गर्भधारण करते ही अप्लाइ करना होता है. माता-पिता के लिए भी अंगरेजी परम आवश्यक है. स्कूटर-बाइक के साथ कार और एक लाख रुपये महीना इनकम. बंदे ने बेटी को हिंदी मीडियम से अंगरेजी स्कूल में दाखिल कराया.
एक बार बंदे को सर्दी-जुकाम ने पकड़ लिया. सरकारी अस्पतालों की भीड़ देख दिल घबराया. प्राइवेट अस्पताल पहुंचे. लंबे-चौड़े टेस्ट पर पांच हजार का चूना लगा. दो मर्ज और निकाल दिये. एक का इलाज अमरीका में तो दूजे का जापान में होना बताया.ट्रेन या बस पकड़नी हो तो कम से कम दो घंटे पहले निकलें. एक बार मैयत में इतना लेट पहुंचा कि राख के दर्शन नसीब हो सके.
बंदे के सामने एक हादसा हुआ. घंटे बाद पुलिस पहुंची. खाना-पूर्ति करके घायल को अस्पताल पहुंचाया. डॉक्टर झल्लाया कि यहां जिंदों को देखने की फुरसत नहीं और तुम मरे को ले कर आ गये. यह शहर पढ़े-लिखे लोगों का है. मगर सिविक सेंस नहीं है. ‘हल्का’ होना है, तो किसी की भी दीवार को गीला करने की आजादी है. ऐसा नजारा ‘खंबे के सहारे हल्के होनेवाले’ की याद दिला गया. यहां शॉपिंग माल और सिनेप्लेक्स हैं. ठंडा-ठंडा, कूल-कूल. एक बार जाओ, समझो न-न करते हजार-दो हजार ढीले हो गये. कहने को बिजली की आपूर्ति निर्बाध है. मगर हर घंटे बाद दो घंटे गायब भी. पगार तो पंद्रह दिन में खत्म हो जाती है. बाकी दिन सियापा.
बंदा पागल हो गया. मेंटल ट्रीटमेंट में रहना पड़ा. जुगाड़ लगा कर अपने कस्बेनुमा शहर लौटा. यहां एक और सदमा इंतजार करता मिला. अब यहां भी शॉपिंग माल और मल्टीप्लेक्स उग आये हैं. छायादार दरख़्त गायब हैं. सड़कें पहले की तरह ही संकरी और टूटी-फूटी हैं. वाहनों के साथ हादसों की संख्या भी बढ़ी हैं. सरकारी अस्पतालों से डॉक्टर गायब हैं. प्राइवेट अस्पताल खूब फल-फूल रहे हैं. बंदा चकरा गया. मेंटल ट्रीटमेंट के लिए उसे फिर उसी बड़े को शहर रेफर कर दिया गया.
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
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