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नये साल में लोकतंत्र की जद्दोजहद
उदय प्रकाश साहित्यकार-फिल्मकार नये साल से जुड़ी उम्मीदों को कई कारकों के मद्देनजर देखा जा सकता है. मेरी राय में अर्थव्यवस्था, संस्कृति और इतिहास किसी भी समाज के आधारभूत तत्व हैं, तथा इनकी दशा और दिशा ही हमारा वर्तमान और भविष्य गढ़ते हैं. नये साल से उम्मीदों के बारे में बात देश की अर्थव्यवस्था से […]
उदय प्रकाश
साहित्यकार-फिल्मकार
नये साल से जुड़ी उम्मीदों को कई कारकों के मद्देनजर देखा जा सकता है. मेरी राय में अर्थव्यवस्था, संस्कृति और इतिहास किसी भी समाज के आधारभूत तत्व हैं, तथा इनकी दशा और दिशा ही हमारा वर्तमान और भविष्य गढ़ते हैं.
नये साल से उम्मीदों के बारे में बात देश की अर्थव्यवस्था से शुरू करते हैं. अभी भारत में जो आर्थिक नीतियां चल रही हैं, उनमें बदलाव की संभावना नहीं है. इस संदर्भ में सारी राजनीतिक पार्टियां ‘टीना’ फैक्टर यानी ‘देयर इज नो आल्टरनेटिव- कोई विकल्प नहीं है’ को मान कर चल रही हैं. उनकी नजर में आर्थिक विकास का एक ही मॉडल है जिसे आज देशभर में प्रोजेक्ट किया जा रहा है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उसी राह पर हैं, उनसे पहले डॉ मनमोहन सिंह की सरकार का भी वही नजरिया था, और बंगाल में वाम मोर्चे की भी समझ यही रही थी. विकास की दृष्टि पर इन सभी में एका है. इसी आधार पर मेरा मानना है कि 2016 में आर्थिक नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होने जा रहा है. हमें इस पर सवाल उठाना चाहिए. यह मॉडल क्या है, इसकी पड़ताल करनी चाहिए. कृषि-अर्थव्यवस्था या ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बारे में हमारे सामने पुख्ता विवरण उपलब्ध हैं कि पहले देश की 67 फीसदी आबादी उस पर निर्भर करती थी और अब यह आंकड़ा करीब 82 फीसदी तक जा पहुंचा है. आबादी के इस हिस्से की हालत सबसे अधिक खराब है. इस स्थिति से नयी आर्थिक नीति का कोई जुड़ाव नहीं है.
नयी आर्थिक नीति ने इतना जरूर कर दिया है कि आज देश में एक नया मीडिल क्लास है, जो हकीकत में मध्य वर्ग नहीं है. वह एक बफर क्लास है. यह आर्थिक नीतियों से लाभ उठा कर बना है, जिसे नियो-रिच यानी नव धनाढ्य वर्ग कहा जाना चाहिए. इस वर्ग की चिंताओं में देश की समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है.
गांवों में बसर करनेवाले 70 फीसदी लोगों की स्थिति पर नजर डालिये. आत्महत्याएं आज भी बदस्तूर जारी हैं और बड़े पैमाने पर हो रही हैं. उनके पास पानी, चिकित्सा, शिक्षा, बिजली, स्वच्छता आदि जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं.
सरकार ने इसमें से एक तत्व को उठाया है कि शौचालय बने, सफाई अभियान चले. क्या इस पहल से शिक्षा मिल जायेगी, दवाई मिल जायेगी, बिजली आ जायेगी, खेतों की सिंचाई हो जायेगी? नहीं. और यह सब कुछ 2016 में बदल जायेगा, इसकी सूरत भी नजर नहीं आती है.
इसी से जुड़ा हुआ मामला है कि सब्सिडी को खत्म किया जा रहा है. मैं मार्क्सवादी नहीं हूं, पर लाखों करोड़ रुपये कॉरपोरेट घरानों और कंपनियों पर बकाया हैं तथा इनके बारे में बैंकों का मानना है कि इनकी वसूली लगभग असंभव है. आप इसकी तुलना कर लीजिये उन लोगों से, जो कुछ हजार रुपये नहीं लौटा पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं. इन पर कोई विचार नहीं किया जा रहा है, इन पर कोई बहस नहीं हो रही है. चूंकि, नीतियों में फेरबदल की गुंजाइश नहीं दिख रही है, इसलिए नये साल में भी मौजूदा निराशाजनक स्थितियां कायम रहेंगी.
जीवन का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू संस्कृति है. सैमुअल हटिंगटन की किताब ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन एंड द रिमेकिंग ऑफ वर्ल्ड ऑर्डर’ आने के बाद से पूंजी का सबसे अधिक निवेश संस्कृति में हो रहा है. आप अमेरिका से लेकर पश्चिम एशिया और भारत तक कहीं भी देख लीजिए कि किसका वर्चस्व है. इस वर्चस्व में भी इस वर्ष कोई परिवर्तन संभावित नहीं है. हम जैसे जो लोग इन पर आपत्तियां उठाते हैं, सवाल खड़े करते हैं, वे अल्पसंख्यक हैं.
उनकी संख्या बहुत कम है. हमारी बातें अभी सुनी नहीं जा रही हैं. पूरे परिदृश्य पर जो ब्राह्मणवादी वर्चस्व है, जाति व्यवस्था है, जिसके विरुद्ध बुद्ध से लेकर आंबेडकर तक खड़े हुए थे, उसे संस्कृति में और अधिक ठोस होते हुए देखेंगे. इस प्रक्रिया को सभी समर्थन देंगे, चाहे वह फिल्म उद्योग हो, मीडिल क्लास हो. राजनीति तो उन्हीं की है ही.
तीसरी बात इतिहास के संदर्भ में. यह बहुत संवेदनशील क्षेत्र है. अगर आपने इतिहास को तबाह कर दिया, तो आप सभ्यता की पूरी स्मृति को खत्म कर देते हैं. और यह काम हो रहा है. यह काम सिर्फ इसलामिक स्टेट ही नहीं कर रहा है, जिसने इराक में सबसे अधिक हमले संग्रहालयों पर किये. मेसोपोटामिया, बैजेंटाइन आदि सभ्यताओं के अवशेषों को नष्ट किया गया, पांडुलिपियां जलायी गयीं. यह गिरोह सीरिया में भी यही कर रहा है. कुछ इसी तरह की गतिविधियां भारत में भी हो रही हैं. भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद में कौन बैठा हुआ है?
पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में क्या हो रहा है? सिनेमा का भी एक इतिहास है. हर कला, हर समाज और हर सभ्यता का एक इतिहास होता है. इस इतिहास को खत्म करने, उसे मनमाफिक बनाने का संगठित प्रयास बड़े पैमाने पर चल रहा है. मुझे बहुत दुख होता है कि इस प्रयास में हमारे पेशे और विचार से जुड़े लोग भी शामिल हैं, जो कभी इतिहास बचाने की बातें किया करते थे.
विज्ञान की प्रगति ने अनेक अंधविश्वासों और असत्य धारणाओं का खंडन किया, पर उन्हें फिर से स्थापित किया जा रहा है. यही काम तालिबान कर रहा है, यही काम हमारे देश में फिर से उभरी विचारधारा कर रही है. अतार्किकता का दखल लगातार बढ़ रहा है और इसके पीछे कॉरपोरेट, मीडिया और बौद्धिक जमात का पूरा समर्थन है. मेरी राय में यह एक ऐसा समय है, जो शायद यूरोप में दो महायुद्धों के दौर में था. टॉयनबी ने कहा था कि इतिहास वृत की तरह होता है.
वह दोहराया जा रहा है और हमलोग एक बार फिर बड़े कठिन दौर से गुजर रहे हैं. इस दौर में एमएम कलबुर्गी और नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोग मारे जा रहे हैं. मेरे जैसे लोग पहले भी सवालों के घेरे में थे और अब भी हैं. जब तक हम नस्ल और जाति के मुद्दों को समझने की कोशिश नहीं करेंगे, तब तक कोई भी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन हो ही नहीं सकता.
इन्हीं आधारों पर नये साल में मुझे कोई सकारात्मकता की बहुत उम्मीद नहीं है. हमारे देश का उपभोक्ता बाजार दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है. आप तकनीक के क्षेत्र में विकास कर सकते हैं, लेकिन इसका सामाजिक परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है.
किसी जमाने में हमारे यहां धातु विद्या बहुत उन्नत थी, पर तब समाज में हिंसा थी, उत्पीड़न था. गुप्त काल, जिसे हम स्वर्ण युग कहते हैं, किसानों के लिए बड़े अंधकार का दौर था और उन पर कई तरह के कर लादे जाते थे. आज भी एेसी लूट चल रही है. इससे कौन लाभान्वित हो रहा है? पूंजीवादी देशों में भी आप इस स्तर की विषमता नहीं पायेंगे.शिक्षा के क्षेत्र में जॉब करनेवाला कुछ हजार वेतन पाता है, जबकि कॉरपोरेट दुनिया में लाखों मिलते हैं.
इसे लेकर देश में बड़े पैमाने पर सामाजिक जागरूकता नहीं है. इस संदर्भ में मैं गांधी को याद करता हूं, जिन्होंने जागरूकता पैदा की और शायद वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने सहभागी लोकतंत्र का सपना देखा. उनकी ताकत किसी कॉरपोरेट से नहीं आ रही थे, उन्हें जमीन से समर्थन मिल रहा था. संपूर्ण क्रांति में जेपी ने भी ऐसा ही किया था. मार्क्स के पेरिस कम्यून की ताकत भी लोग ही थे. जब भी कोई परिवर्तन होगा, तो वह नीचे के स्तर से ही आयेगा.
मुझे 2016 में इतनी सकारात्मक उम्मीद है कि लोकतंत्र एक बार फिर अपने को स्थापित करने की जद्दोजहद करेगा.
पश्चिमी देश खुद को लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं, पर जो देश उनके निशाने पर रहे हैं, वहां भी लोकतंत्र की जड़ें रही हैं. आप काहिरा के तहरीर चौक को याद करें. इसलामी देशों में बार-बार होनेवाले उथल-पुथल को देखें. अगर वहां तालिबान जैसे संगठन हैं, तो पश्चिम में भी श्वेत उग्रवादी हैं, जो अन्य नस्लों के लोगों को निशाना बनाते हैं.
हमारे यहां धार्मिक चरमपंथी हैं. इनको हटा कर देखिये, हर जगह लोकतांत्रिक ताकतें आवाज उठा रही हैं. लोग पर्यावरण, सूचना के अधिकार, रोजगार, सामाजिक भेदभाव जैसे मसलों पर बोल रहे हैं. भारत समेत दुनिया के हर देश में सामाजिक कार्यकर्ताओं की जितनी बड़ी संख्या आज है, वैसा पहले कभी रहा है. ये अभी सशक्त नहीं हैं, पर धीरे-धीरे उनकी ताकत बढ़ेगी.
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