ग्रामीणों द्वारा जनधन योजना के अंतर्गत बीमा आदि के प्रलोभन में बैंकों में अपनी बचत को जमा कराया जा रहा है और ग्रामीण आय को बैंकों द्वारा चूस कर शहरों को पहुंचाया जा रहा है.
सरकार का प्रयास है कि देश का हर नागरिक बैंकिग व्यवस्था से जुड़े, जिससे उसे साहूकार से ऋण न लेना पड़े. इस उद्देश्य से सरकार ने जनधन योजना को बड़े जोर-शोर से लागू किया है. योजना में व्यवस्था है कि खाता धारक को 5,000 रुपये तक का ऋण बैंक द्वारा दिया जा सकता है. परिवार के कमानेवाले की पांच वर्षों तक मुफ्त बीमा का भी प्रावधान है.
सोच है कि इन प्रलोभनों से आकर्षित होकर गरीब लोग बैंक में खाता खुलवायेंगे. जरूरत पड़ने पर बैंक से लोन ले सकेंगे और साहूकार से बच जायेंगे.
लेकिन जमीनी हालात में सुधार नही दिख रहा है. पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों द्वारा दिये जानेवाले ऋण में गिरावट आ रही है. कर्नाटक के समृद्ध माने जानेवाले दक्षिण कन्नडा जिले में रिजर्व बैंक द्वारा स्थापित मानकों से कम ऋण दिये जा रहे हैं. ओड़िशा के 30 में से 25 जिलों में कम ऋण दिये जा रहे हैं. पश्चिम बंगाल में दिये जानेवाले ऋण में गिरावट आ रही है. सरकार चाह रही है कि बैंकों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक मात्रा में ऋण दिये जायें, परंतु हो रहा है इसके ठीक विपरीत. ग्रामीण क्षेत्रों में दिये जानेवाले ऋण में गिरावट जनधन योजना के बावजूद है.
ऐसा होना ही था. एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी. गांव के बालक का संपर्क शहर से करा दिया जाता है. शहर जाकर वह अच्छे विद्यालय में पढ़ाई कर सकता है अथवा नुक्कड़ पर मित्रों के साथ ड्रग्स का सेवन कर सकता है. शहर से संपर्क होने का प्रभाव अच्छा होगा या बुरा- यह इस बात पर निर्भर करेगा कि संपर्क किस प्रकार के वातावरण में होता है. इसी प्रकार जनधन योजना के माध्यम से गरीब का बैंकिंग व्यवस्था से संपर्क बना है. यह संपर्क लाभकारी होगा कि नहीं- यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बैंकों में जमा पूंजी का प्रवाह किधर है.
दूसरा उदाहरण लें. 19वीं सदी में ब्रिटिश हुकूमत ने पूरे देश में रेल का जाल बिछा दिया था. तमाम अंदरूनी इलाकों को कोलकाता, मुंबई एवं चेन्नई के बंदरगाहों से जोड़ दिया गया था. माल का आवागमन सुलभ हो गया था, परंतु परिणाम क्या हुआ? रेल लाइन बिछाये जाने के पूर्व विश्व की आय में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था. रेल लाइन बिछाने के बाद हमारा हिस्सा घट कर मात्र एक प्रतिशत रह गया. यानी रेल लाइन के माध्यम से देश की आय को चूस लिया गया- जैसे कैथेटर लगा कर शरीर से खून निकाला जाता है. इसका अर्थ यह नहीं कि रेल लाइन बिछाना गलत था. रेल स्वयं में एक अच्छी व्यवस्था है.
लेकिन, ब्रिटिश हुकूमत ने ऐसी परिस्थितियां बना रखी थी कि इस व्यवस्था का परिणाम नकारात्मक रहा. निर्यात किये गये माल का दाम हमें कम मिलता था, जबकि आयात किये गये माल का दाम ज्यादा अदा करना पड़ता था. फलस्वरूप रेल के विस्तार के साथ-साथ हम गरीब होते गये.
लगभग ऐसा ही प्रभाव जनधन योजना का हो रहा है. ग्रामीण लोगों द्वारा इस योजना के अंतर्गत बीमा आदि के प्रलोभन में बैंकों में अपनी बचत को जमा कराया जा रहा है. बैंकों द्वारा इस बचत को शहरों को पहुंचाया जा रहा है. जनधन योजना का अंतिम प्रभाव है कि ग्रामीण आय को चूस कर शहरों को अधिकाधिक पहुंचाया जा रहा है. उदाहरण के लिए पंजाब में ग्रामीण लोगों द्वारा बैंक में 100 रुपये जमा कराये जाते हैं, तो बैंकों द्वारा 61 रुपये का ऋण ग्रामीण क्षेत्र में दिये जाते हैं और 39 रुपये को चंडीगढ़ आदि शहरों को भेज दिया जा रहा है. इस दुरूह परिस्थिति का दोष जनधन योजना को नहीं है- जैसे भारत की गरीबी का कारण रेल लाइन का बिछाया जाना नहीं था. भारत की गरीबी का कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा बनायी गयी नीतियां रहीं. रेल लाइन ने उन हानिप्रद नीतियों को लागू करने में मोबिल आॅयल का कार्य किया. इसी तरह गांव की पूंजी को शहर पहुंचाने का कारण जनधन योजना नहीं है. इसका कारण है कि गांव में उद्यम लगाने को सरकार प्रोत्साहन नहीं देती है. बैंकों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण कम दिये जा रहे हैं. गांव में ऋण की मांग नहीं है तथा गांव की पूंजी को जमा करा कर शहर पहुंचाया जा रहा है.
मूल समस्या है कि गांव में उद्यम लगाना घाटे का सौदा है. जैसे जुलाहे का काम लें. जुलाहे द्वारा पहले सूत को शहर से खरीद कर गांव लाना होता है. बुनाई करके पुनः कपड़े को शहर के बाजार में पहुंचाना पड़ता है. दोनों तरफ की ढुलाई लगती है. तुलना में शहरी जुलाहे को ढुलाई के ये खर्च वहन नहीं करने पड़ते है. फलस्वरूप शहरी जुलाहे की लागत कम आती है, जबकि ग्रामीण जुलाहे की लागत ज्यादा आती है. परिणाम है कि गांवों में जुलाहे का धंधा लुप्तप्राय हो जाता है.
सरकार यदि गांव को समृद्ध बनाना चाहती है, तो ग्रामीण उद्योगों को सब्सिडी देनी होगी. ग्रामीण क्षेत्रों तक माल की ढुलाई में लगे अतिरिक्त खर्च की भरपाई नगद सब्सिडी देकर की जा सकती है. जैसे ग्रामीण जुलाहे की बुनाई की लागत 30 रुपये प्रति मीटर आती हो और शहरी जुलाहे की लागत 25 रुपयेे प्रति मीटर आती हो, तो ग्रामीण जुलाहे को 5 रुपये प्रति मीटर की सब्सिडी देने से उसका धंधा चल निकलेगा. परंतु, इस प्रकार की सब्सिडी का निरंतर दिया जाना व्यावहारिक नहीं है. ऐसी योजनाओं में रिसाव ज्यादा होता है. सरकारी बजट पर भार पड़ता है. अतः हमें इस कटु सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में उद्योग सफल नहीं होंगे. तदानुसार, बैंकों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण कम ही दिया जायेगा. फलस्वरूप हमारी बैंकिंग व्यवस्था एक विशाल वैकुम की तरह कार्य कर रही है, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों की आय को खींच कर शहरों तक पहुंचा रही है.
तकनीकी आविष्कारों ने गांव को कमजोर बना दिया है. आज गांव को बिजली शहर से मिलती है, पढ़ाई को स्कूल बस शहर से आती है, मनोरंजन को टेलीविजन प्रोग्राम शहरों से प्रसारित किये जाते हैं. मोबाइल फोन शहर में बनता है और टाॅवर भी शहर में लगाये जाते हैं. पहले गांव इन सभी कार्यों में स्वायत्त था. दीये का तेल गांव की धानी में निकाला जाता था, शिक्षा के लिए गांव में गुरुकुल था, मनोरंजन को नौटंकी गांव में रची जाती थी, संचार को कबूतर गांव में पाले जाते थे. आधुनिक तकनीकों ने गांव के इन कार्यकलापों को ध्वस्त कर दिया है, इसलिए गांव का क्षय निश्चित है. इस परिस्थिति में सभी योजनाओं का प्रभाव गांव को तोड़ कर शहर को पोषित करना हो जाता है, चाहे वह स्कूल बस हो या जनधन योजना. सरकार को चाहिए कि इस कटु सत्य को स्वीकार करे और जनता को बताये कि हमारा भविष्य शहरों में है. गड़बड़ी जनधन योजना में नहीं है. गड़बड़ी यह है कि इसे ग्रामीण क्षेत्रों तथा गरीब खाताधारकों के लिए झूठे ही लाभप्रद बताया जा रहा है.
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
bharatjj@gmail.com