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कबीर-नागार्जुन के बाद ‘विद्रोही’ जनकवि
‘आइसा’ के वे कॉमरेड थे और ‘कॉमरेड’ कहे जाने का उन्हें गर्व था. उनकी कविताएं न्याय के लिए जारी संघर्ष में शामिल थीं. वे नास्तिक थे. उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं. शिक्षित समुदाय को वाचिक काल-परंपरा से उन्होंने जोड़ा. सत्ता-विरोधी कवि ही सच्चा जनकवि है. राजसत्ता, धर्मसत्ता, पितृसत्ता की प्रखर आलोचना जनसत्ता का आकांक्षी कवि ही […]
‘आइसा’ के वे कॉमरेड थे और ‘कॉमरेड’ कहे जाने का उन्हें गर्व था. उनकी कविताएं न्याय के लिए जारी संघर्ष में शामिल थीं. वे नास्तिक थे. उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं. शिक्षित समुदाय को वाचिक काल-परंपरा से उन्होंने जोड़ा.
सत्ता-विरोधी कवि ही सच्चा जनकवि है. राजसत्ता, धर्मसत्ता, पितृसत्ता की प्रखर आलोचना जनसत्ता का आकांक्षी कवि ही कर सकता है. कवि-श्रेणी की एक कोटि अगर धन-कवि की हो सकती है, तो हमारे समय में किसी-न-किसी रूप में धन कवियों की संख्या बढ़ी है. रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ (3 दिसंबर, 1957- 8 दिसंबर, 2015) जन कवि थे. सामान्य जन ही उनका धन था. कहीं से ‘आधुनिक’ नहीं फक्कड़, मलंग, कवि थे वे. कविता उनके लिए खेती थी. कवि की संतान थी. बाप का सूद और मां की रोटी थी. वे संभवत: अकेले कवि थे, जिन्होेंने अपनी कविता में कवि को बचाने की बात कही़. कवि को बचाना कविता और जीवन को, किसान और मजदूर को, धरती और श्रम को बचाना है. ‘तुम वे सारे लोग मिल कर मुझे बचाओ/ जिसके खून के गारे से/ पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं/ क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है/ जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर पड़ी है. मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है, जिनकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं. मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है. मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है/ तुम मुझे बचाओ/ मैं तुम्हारा कवि हूं.’
सुल्तानपुर जिला (उत्तर प्रदेश) के ऐरी फिरोजपुर गांव के रामनारायण यादव और श्रीमती करमा देवी की इस संतान ने बचपन में भैंस चरायी थी. मां करमा देवी गायिका भी थीं. गांव के स्कूल सरस्वती इंटर कॉलेज उमरी और राज डिग्री कॉलेज, बनवारीपुर से आरंभिक शिक्षा, इंटर-बीए करने के बाद उन्होंने वकालत की अधूरी पढ़ाई की. शिक्षित पत्नी से पढ़ने की प्रेरणा मिली. 1980 में वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय मे एमए हिंदी की पढ़ाई करने आये. 1983 के छात्र-आंदोलन में सक्रियता के कारण, 26 अप्रैल 1983 को छात्रों की भूख हड़ताल में शामिल होने के कारण 8 मई, 1983 को उन्हें गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया गया. उनकी गिरफ्तारी का विरोध हुआ. 14 मई, 1983 को पुलिस और छात्रों के बीच संघर्ष हुआ. उस दिन लगभग 300 छात्र गिरफ्तार हुए, जेल गये. तीन दिन बाद ‘विद्रोही’ की पत्नी शांति देवी ने (दिल्ली विकास प्राधिकरण यानी डीडीए) में कार्यरत जमानत ली. विद्रोही की औपचारिक विश्वविद्यालयी शिक्षा प्रभावित हुई. उनका अंतिम सेमेस्टर था, पर उन्हें कक्षा करने की अनुमति नहीं थी. अपनी अधूरी शिक्षा और बहिष्कार के बाद भी उन्होंने विवि कैंपस नहीं छोड़ा. लगभग 31 वर्ष वे कैंपस में रहे. 2010 में उन्हें फिर कैंपस से निकाला गया. उन पर गंदी भाषा के प्रयोग का झूठा इल्जाम था. छात्रों में उनके प्रति अद्भुत प्यार था. 4 सितंबर, 2010 को कैंपस से उनको बाहर किये जाने के पूर्व आदेश को निरस्त किया गया. वे फिर कैंपस लौटे और अंत तक वहीं रहे.
‘विद्रोही’ कैंपस के कवि नहीं थे. वे छात्र-आंदोलन के साथ रहे. छठीं कक्षा (1967) से उनका कविता से लगाव और जुड़ाव था. 1967 में नक्सलबाड़ी के जन्म के साथ कविता में उनका प्रवेश हुआ. छात्र संगठन ‘आइसा’ के वे कॉमरेड थे और ‘कॉमरेड’ कहे जाने का उन्हें गर्व था. उनकी कविताएं न्याय के लिए जारी संघर्ष में शामिल थीं. वे नास्तिक थे. उन्होंने कविताएं नहीं लिखीं. शिक्षित समुदाय को वाचिक काल-परंपरा से उन्होंने जोड़ा. मुद्रित साहित्य के ग्रहण और वाचिक कविता के ग्रहण में अंतर है. वाचिक परंपरा में समूह-समुदाय प्रमुख है. कविताएं श्रोताओं को सीधे संबोधित होती हैं. कवि-पाठक-श्रोता के बीच दूरी मिटती है. हिंदी कविता वाचिक-परंपरा से दूर जा चुकी हैं. विद्रोही ने उसे पुनर्जीवित किया. हिंदी-अवधी मिश्रित उनका काव्य संग्रह ‘नई खेती’ उनके काव्य प्रेमियों, मित्रों संगी-साथियों के कारण प्रकाशित हुआ. 150 पृष्ठों की यह किताब 2011 में सांस्कृतिक संकुल, जनसंस्कृति मंच, इलाहाबाद ने प्रकाशित की थी. विद्रोही की अनेक अप्रकाशित कविताएं हैं. अगले वर्ष उनके दूसरे कविता-संकलन के प्रकाशित होने की संभावना है. दिल्ली और बाहर के विश्वविद्यालयों में घूम-घूम कर उन्होंने अपनी कविताएं सुनायीं. अपने को नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा और कबीर की परंपरा से वे जोड़ते थे. जेएनयू से वे सदैव जुड़े रहे. ‘जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहां के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुजारे हैं.’ तीन दशकों से वे जेएनयू के अघोषित नागरिक थे. सुबह 7 बजे से शाम 5 बजे तक वे कैंपस में लाइब्रेरी और फिर गंगा ढाबेे पर देखे जा सकते थे. नवारूण भट्टाचार्य जेएनयू में उनसे गले मिले थे. उनकी लोकप्रियता उनकी क्रांतिकारिता से जुड़ी थी. वे सदैव युवाओं के साथ रहे, क्योंकि क्रांति में युवाओं की ही मुख्य भूमिका है. अपनी एक कविता में उन्हाेंने लिखा है कि न तो चे ग्वेवारा मरे हैं और न चंद्रशेखर. ‘मोहनजोदड़ो’ कविता में कविता के लिखने से आग भड़कने की बात कही गयी है. इस कविता में ‘विद्रोही’ ने पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाआें के लोगों से ‘आग से बचाने’ की बात कही है. जो आग लगायी जा रही है- शताब्दियों- सहस्त्राब्दियों से, उससे बचाना जीवन को बचाना है.
नई खेती, औरतें, मोहनजोदड़ो, जन-गण-मन, दुनिया मेरी भैंस, नूर मियां, धरम तुम्हारा भगवान, पुरखे, कथा देश की, कवि, कविता और लाठी आदि उनकी प्रमुख कविताएं हैं. अवधी में इह वइ धरतिया हमार महतरिया, मां, सिरता जी मइया आदि कविताएं प्रमुख हैं. विद्रोही की तर्क-दृष्टि, इतिहास दृष्टि उनकी कविताओं में मौजूद है. अगर जमीन पर भगवान जम सकता है, तो आसमान में धान भी जम सकता है. उनकी कविता का व्याकरण समाज के व्याकरण से जुड़ा है. पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें/ फिर भारत भाग्य-विधाता मरें/ फिर साधू के काका मरें/ यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें/ फिर मैं मरूं- आराम से. अवधी कविता ‘ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगत’ अप्रतिम है. उनकी कविता का समाज-संसार हिंदी के कई प्रतिष्ठित सम्मानित, पुरस्कृत कवियाें के समाज-संसार से भिन्न है. वे बदलाव, परिवर्तन, संघर्ष, प्रतिरोध और एक अर्थ में क्रांति के कवि थे.
नितिन के पमनानी और इमरान द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंटरी फिल्म ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ (42 मिनट की) उन पर केंद्रित है, जिसे मुंबई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में सर्वोत्तम डॉक्यूमेंटरी फिल्म अवार्ड मिला है. उनकी कविताओं और इस फिल्म से उनके महत्व को जाना जा सकता है. एक्टिविस्ट कवियों की एक समृद्ध विश्व विरासत है. विद्रोही एक सांस में मोहनजोद.डो से लेकर आज के भारत की यात्रा करते हैं. वे उस ‘नयी दुनिया’ के कवि थे, जहां आदमी आदमी की तरह रह सके.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
delhi@prabhatkhabar.in
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