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चढ़ जा बेटा बीमे पर…

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार बीमा करने के लिए एजेंट काफी समय से चक्कर लगा रहा था. मैं हर बार उसे आश्वासन दे देता कि जल्दी ही मन बना कर सूचित करूंगा. हमारे नेताओं ने आश्वासन कहने से पहले उसे झूठा कहने की आवश्यकता नहीं छोड़ी है और उनकी कृपा से आश्वासन झूठ का पर्याय […]

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

बीमा करने के लिए एजेंट काफी समय से चक्कर लगा रहा था. मैं हर बार उसे आश्वासन दे देता कि जल्दी ही मन बना कर सूचित करूंगा. हमारे नेताओं ने आश्वासन कहने से पहले उसे झूठा कहने की आवश्यकता नहीं छोड़ी है और उनकी कृपा से आश्वासन झूठ का पर्याय हो गया है.

इसलिए मेरे आश्वासन का मतलब वह भी समझता था. लेकिन फिर एक दिन ‘आ बैल मुझे मार’ कहावत ने चरितार्थ होने के लिए जोर मारा. नतीजा यह हुआ कि मुझे लगने लगा कि खुद को इनसान साबित करने का यह सर्वोत्तम तरीका है. एक जमाना था, जब इनसान उसे समझा जाता था, जो दूसरों के लिए जिये. आज इनसान वह है, जो दूसरों के लिए मरे. लिहाजा एक दिन मैं खुद ही उससे मुखातिब हुआ. एजेंट को तो मानो मुंहमांगी मुराद मिल गयी. बस, वह शुरू हो गया-

‘साहब, यह एक स्कीम है. इसमें एक तो यह फायदा है, दूसरा यह.’

‘और तीसरा?’ मैंने पूछा.

‘नहीं, उसके लिए एक और स्कीम है. उसके लाभ पहले वाली से अलग हैं. एक यह, दूसरा वह. पॉलिसी के दौरान अगर खुदा-न-खास्ता कुछ हो जाता है, तो पॉलिसी की पूरी रकम आपको मिल जायेगी.’

‘यह तीसरा फायदा है?’

‘नहीं, तीसरा तो पहले वाली में भी था. इसमें यह कि अगर पॉलिसी की अवधि सही-सलामत निकल जाती है, तो भी आप फायदे में रहेंगे.’

‘अरे भाई, तुम तो बीमा-स्कीम ऐसे बता रहे हो, जैसे बैंक वाले अपनी डिपोजिट-स्कीम बताते हैं. मुझे बीमा रुपये जोड़ने के लिए नहीं, लेने के लिए कराना है. अगर आप बीस साल की पॉलिसी लेते हैं और बीस साल से पहले ही… हां, उसी स्कीम को जरा विस्तार से बताइए.’

‘उसमें पॉलिसी की अवधि के दौरान एक निश्चित अंतराल के बाद आपको थोड़ी-थोड़ी रकम वापस मिलती रहेगी. काफी रकम मिल जाने के बाद भी अगर बीस साल से पहले खुदा-न-खास्ता कुछ हो जाता है, तो भरपाई पूरी रकम की ही की जायेगी. बस इसमें किस्त जरा ज्यादा है.’

‘वो क्यों?’ मैंने पूछा.

‘अब भाई साहब, जितना गुड़ डालेंगे, उतना ही मीठा होगा न! और फिर, सारे रुपये आप ही को वापस मिल जाने हैं.’

‘मुझे?’ मैंने फिर पूछा.

‘आपको नहीं तो आपके परिवार को. हर हाल में घी गिरेगा खिचड़ी में ही. हम तो बस, आपका फायदा चाहते हैं, जिससे आपकी भलाई हो.’

मेरी समझ में कुछ नहीं आया. क्योंकि अपनी भलाई देखता, तो फायदा होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था और फायदे के लिए भलाई वाले पक्ष की बलि चढ़ानी आवश्यक जान पड़ती थी. इसलिए पूछ बैठा, ‘आप मेरी भलाई चाहते हैं या फायदा?’

एजेंट दर्शन बघारने लगा, ‘साहब, इनसान वही है, जो दूसरों के बारे में सोचे.’ उसने ऐसे कहा, मानो कह रहा हो, अपने परिवार की नहीं, तो मेरी तो कुछ सोच! उसकी कातरता और इनसानियत के तकाजे ने मुझे उसके बारे में सोचने और बीमा-पॉलिसी लेने पर विवश कर दिया. मुझे संतोष था कि मैं परोपकार के लिए सूली पर चढ़ रहा हूं और उसे खुशी थी कि आज उसने एक और आदमी को टोपी पहना दी.

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