अनुज कुमार सिन्हा
वरिष्ठ संपादक
प्रभात खबर
देश की सर्वोच्च संस्था संसद में जिस तरीके से गतिरोध चल रहा है, उसने राष्ट्रपति को सुझाव देने के लिए बाध्य कर दिया. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने सुझाव देते हुए कहा कि संसद की कार्यवाही डिबेट, डिसेंट और डिसीजन पर आधारित होनी चाहिए. यानी, अगर कोई मुद्दा हो, तो उस पर डिबेट हो, शालीन तरीके से हो और किसी निर्णय पर पहुंचा जा सके. लेकिन, हो रहा है ठीक इसके उलट.
ये वे लोग कर रहे हैं, जिन पर देश को चलाने, कानून बनाने (पक्ष और विपक्ष) की जिम्मेवारी है. अभी हालत यह है कि कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ संसद को नहीं चलने दे रही है. राष्ट्रपति के सुझाव का महत्व होता है. इनका सम्मान होना चाहिए, लेकिन यह तब होगा, जब हमारे सांसद जिम्मेवारी को समझें. देश की जनता उम्मीद के साथ सांसदों को चुन कर संसद में भेजती है, ताकि वे उनका प्रतिनिधित्व करें, मुद्दे उठायें और समस्याओं का निदान हो.
एक दौर था, जब संसद के दोनों सदनों में हर महत्वपूर्ण विषय पर गंभीर चर्चा होती थी. तार्किक तौर पर सदन में गंभीरता होती थी. दलों से पहले देश के बारे में सोचा जाता था. आज दल और निजी स्वार्थ पहले आ गया है और देश-जनता का हित पीछे चला गया है. संसद के एक-एक घंटे की कार्यवाही पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. ये पैसे जनता के होते हैं. ये पैसे बेकार जा रहे हैं.
देश में महत्वपूर्ण विधेयक पास नहीं हो पा रहे हैं. सरकार हो या विपक्ष, दोनों की अपनी-अपनी जिम्मेवारी होती है. हाल के दिनों में कांग्रेस का रवैया बहुत ज्यादा नकारात्मक दिख रहा है. उसने यह तय कर लिया है कि किसी हाल में, किसी बहाने संसद को नहीं चलने देंगे. पहले वर्षाकालीन सत्र को खराब किया, अब शीतकालीन सत्र को. संभव हो, सरकार की ओर से भी उतनी गंभीर पहल नहीं की गयी हो, जितनी कि होनी चाहिए.
लेकिन इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ रहा है. अगर संसद नहीं चल रही, तो किसी सांसद को व्यक्तिगत घाटा नहीं हो रहा. वेतन-भत्ता तो ये लेंगे ही. संसद की कैंटीन में मामूली पैसे में मिलनेवाला नाश्ता-खाना बंद नहीं होगा. बिना काम के पैसा मिलता रहेगा. नुकसान होगा, तो देश का. ये सोचने का वक्त है.
संसद में कार्यवाही के दौरान जो हो-हल्ला ये सांसद मचाते हैं, उसे पूरी दुनिया देखती है (टेलीविजन के जरिये).
क्या छवि बन रही है? क्या कभी सांसदों ने यह सोचा है कि उनके बारे में जनता के बीच में क्या धारणा बन रही है? हर मुद्दे पर हंगामा करना उचित नहीं होता. हां, अगर मुद्दे हैं, तो संसद में उठे, उन पर ईमानदारी से चर्चा हो. चर्चा ऐसी हो, जिससे कोई रास्ता निकले. संसद की गरिमा बढ़े. सिर्फ अड़ने से कोई रास्ता नहीं निकलता.
इस बार ऐसा लगा था कि शायद संसद ढंग से चलेगी. इसी बीच नेशनल हेराल्ड का मामला आ गया. मामला भाजपा के एक नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने दायर किया था, इसलिए यह मामला सरकार बनाम विपक्ष बन गया. यहां इस बात को भुला दिया गया कि यह मामला कोर्ट में है. अगर अदालत सोनिया गांधी या राहुल गांधी को नोटिस भेज कर हाजिर होने का आदेश देती है, तो यह सरकार का मामला नहीं है. न्यायपालिका स्वतंत्र है और वह कानून सम्मत फैसला लेती है.
इसमें संसद आड़े नहीं आती. जिस बात को आम आदमी भी समझता है, वही बात सांसदों को क्यों समझ में नहीं आती? ऐसे में एक ही सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस यह उम्मीद करती है कि संसद सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर नेशनल हेराल्ड का मामला वापस लेने का अदालत से आग्रह करे? क्या यह संभव है?
यह मामला अदालत का है, इसलिए उसे अदालत में ही निबटाना चाहिए. कांग्रेस जिद छोड़े और सरकार को संसद के भीतर वास्तविक मुद्दे पर घेरे, विकास के मुद्दे पर घेरे, जरूरी सवाल उठाये, चर्चा में भाग ले, मिल कर नीतियां बनायें. अगर जीएसटी बिल में कांग्रेस सुधार चाहती हो, तो संशोधन लाये, उस पर अड़े और किसी नतीजे पर पहुंचे. इसी में सभी का भला है.
ऐसी बात नहीं है कि सिर्फ कांग्रेस ही ऐसा व्यवधान करती है. जब भाजपा विपक्ष में थी, वह भी ऐसा ही करती थी. अब कांग्रेस उसी का बदला ले रही है. ऐसे निर्णयों से देश का भला नहीं होगा. संसद के एक-एक मिनट का उपयोग हो, बहस इतना जोरदार हो, सूचनात्मक हो, जिससे कानून को बेहतर बनाने में मदद मिले. लोग सराहें और देश के विकास का रास्ता खुले. क्षणिक और तात्कालिक लाभ की राजनीति देश को पीछे धकेलती है. इसलिए इससे बचना होगा.