।। सतीश उपाध्याय ।।
(प्रभात खबर, पटना)
बात उन दिनों की है जब मैं विश्वविद्यालय में पढ़ता था. विश्वविद्यालय में परिचर्चाएं होती थीं. अपने-अपने विषयों के जानकार इसमें भाग लेते थे. इन परिचर्चाओं से सामने वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व के कई पहलू देखने को मिलते थे. कुछ सहपाठी तो अपने कौशल का ऐसा डंका पीटते थे कि उनके ज्ञान के आगे दूसरा पानी भरे. लेकिन तब सचमुच उनके ये कौशल बड़े प्रभावित करते थे.
बात यहां से शुरू करता हूं, विश्वविद्यालय में परिचर्चा के दौरान किसी गंभीर विषय पर बहस हो रही थी. बहस की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कि कोई भी ऐसा छात्र नहीं था, जो विदेशी लेखकों से नीचे बात कर रहा हो. मैं भी उनके अध्ययन क्षेत्र से काफी प्रभावित हो रहा था, लेकिन काफी लंबी बहस के बाद शायद ही हम किसी ठोस नतीजे पर पहुंचे हों. क्योंकि इतने तर्क और तथ्य सामने रख दिये जाते थे कि सही-गलत में फर्क करना भी मुश्किल हो जाता था. परिचर्चा खत्म होते ही, दिमागी कसरत पूरी होने के बाद मैं अपने साथी मित्रों से एकांत में इस पर चर्चा करता था. खास कर उससे जो पूरे परिचर्चा के दौरान दूसरों पर हावी रहता था. मैंने कहा- यार, तुम्हारा अध्ययन क्षेत्र तो काफी विस्तृत है.
कितना पढ़ते हो तुम? इस पर वह हंसा और बोला- कुछ ज्यादा नहीं पढ़ता, बस इतना पढ़ लेता हूं कि सामनेवाले से किसी भी विषय पर बात कर सकूं. बाकी तुम तो जानते ही हो, कि फेंकने की कला में मैं कितना माहिर हूं. मैंने कहा- यार, तुम कभी पकड़ में नहीं आते? उसने कहा कि हमारे यहां बहस का स्तर तुम जानते हो, बहस भारत की समस्या को लेकर शुरू होगी और यह महानुभाव अमेरिका, जर्मनी, रूस और चीन के उदाहरण तुम्हारे सामने रखेंगे. तुम्हीं बताओ इसका क्या मतलब. यह तो बहस को भटकाना हुआ न? इन्हें समाधान से कोई मतलब नहीं. तभी तो मैं भी कुछ काल्पनिक लेखकों के नाम ले लेता हूं. इसलिए मैं कभी पकड़ में नहीं आता. खास कर, जब सामनेवाले का अध्ययन क्षेत्र सीमित हो.
क्योंकि मैं जानता हूं कि यदि पूरे प्रभाव और गंभीरता के साथ मैं इन काल्पनिक लेखकों के उद्धरण को सामने रखूंगा तो सामने वाला इसे गंभीरता से लेगा. अब आज ही देखो विकास के रूसी और चीनी मॉडल पर बात हो रही थी. सब बड़े से बड़े चीनी और रूसी लेखकों का नाम ले रहे थे. जिन लेखकों के उद्धरणों का यह जिक्र कर रहे थे, उन्होंने भारतीय समाज को कभी नजदीक से जाना ही नहीं. फिर ऐसी गंभीर बहस में उन लेखकों को शामिल करने का क्या मतलब? मैं कुछ हद तक उसकी बातों से सहमत हुआ. वैसे ही परिदृश्य को आज मैं अपने काफी नजदीक पाता हूं. बस जगह और लोग बदल गये हैं. और आज मैं जब राजनीतिक मंचों से फेंकू नेताओं के भाषण सुनता हूं तो मुङो मेरा वही पुराना दोस्त याद आ जाता है. खास कर तब, जब ये मनगढ़ंत बातों से लोगों को भ्रमित करने का प्रयास करते हैं.