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मैं अखबारों के संपादकीय कॉलम और पाठक मत काफी ध्यान से पढ़ता हूं. विभिन्न क्षेत्रों के महान लेखक बहुत ही ज्वलंत मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं. तकरीबन सभी लेखों की शुरु आत शानदार होती है और कई तथ्यों की जानकारी मिलती है. लेकिन स्तंभ का समापन (जहां कुछ समाधान की उम्मीद रहती है) बिल्कुल हताश […]

मैं अखबारों के संपादकीय कॉलम और पाठक मत काफी ध्यान से पढ़ता हूं. विभिन्न क्षेत्रों के महान लेखक बहुत ही ज्वलंत मुद्दों पर प्रकाश डालते हैं. तकरीबन सभी लेखों की शुरु आत शानदार होती है और कई तथ्यों की जानकारी मिलती है.

लेकिन स्तंभ का समापन (जहां कुछ समाधान की उम्मीद रहती है) बिल्कुल हताश करता है. आम तौर पर स्तंभों का समापन निम्नलिखित तरह के जुमलों से होता है

1. लोगों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी,

2. राजनेताओं को अपनी सोच में बदलाव लाना होगा,

3. अफसरों को अपनी कार्यशैली पर विचार करना पड़ेगा,

4. पुलिस को अपना मानवीय पक्ष उभारने की जरूरत है,

5. महिलाओं के प्रति समाज का सोच बदलने की जरूरत है,

6. युवाओं को राजनीति में आना चाहिए,

7. उच्चस्तरीय जांच करवा कर दोषियों को सजा देनी होगी.

ऐसा लगता है जैसे संपादकीय लेख लिखनेवाले सभी महानुभाव किसी अवतार की प्रतीक्षा में हैं, जो आकर ये सब करेंगे. अखबारों के संपादकीय कॉलमों में हर बार इन्हीं जुमलों का दोहराव निराशाजनक लगता है. इन्हें पढ़ने के बाद अपने स्कूल के दिनों में 26 जनवरी और 15 अगस्त के भाषण याद जाते हैं, जो हर साल कमोबेश एक जैसे ही रहते थे.

आश्चर्य की बात है कि इतने महान लोग समाज की समस्याओं को सुलझाने के उपाय बताने की जगह सिर्फ किसी चमत्कार की आशा में बैठे हैं, जैसे कोई सतयुग आयेगा तो सब कुछ ठीक हो जायेगा. ऐसे किसी बदलाव की आशा तो एक आम गरीब, अनपढ़ कमजोर व्यक्ति करे तो समझ भी आता, लेकिन इतने प्रभावशाली, प्रतिभाशाली और बुद्धिजीवियों की ऐसी सोच अत्यंत निराशाजनक है.

राजन सिंह, मेल से

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