अंगरेजी में एक कहावत है कि ‘मैरिजेज आर मेड इन हैवेन’ तो हमारे समाज में शादी को विधि का विधान और जन्म-जन्मांतर का बंधन बताने का चलन रहा है. इसके उलट आधुनिक सोच में बाकी ढेर सारी बातों की तरह शादी और तलाक को भी दो व्यक्ति की आपसी रजामंदी का मामला माना जाता है.
अचरज हो सकता है कि तलाक के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्ति की रजामंदी वाले तर्क को नहीं, बल्कि शादी को जन्म-जन्मांतर का रिश्ता माननेवाली सोच को महत्व देते हुए फैसला सुनाया है. मामले में भरण-पोषण के लिए साढ़े बारह लाख रुपये लेकर पत्नी तलाक के रजामंद थी, लेकिन अदालत ने यह कहते हुए तलाक की अर्जी को खारिज कर दिया कि हिंदू परिवार में पत्नी चूंकि पति को परमेश्वर मानती है, सो पति दुख की घड़ी में पत्नी को कैसे छोड़ सकता है? मामले से जुड़ा एक तथ्य यह भी है कि पत्नी कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित है और रोग की गंभीरता काफी बढ़ चुकी है. अदालत ने ठीक कहा कि सबसे पहले पति को चाहिए कि वह पत्नी को पांच लाख रुपये इलाज के लिए दे और जब रोग एक हद तक संभल जाये, तब पुनर्विचार करे कि तलाक की अर्जी देनी है या नहीं. अपनी शब्दावली में परंपरागत सोच का प्रतिनिधि जान पड़ने के बावजूद यह फैसला आधुनिक व्यक्ति और रिश्तों के भीतर बसी स्वार्थ की भावना पर गहरी टिप्पणी है.
क्या हर स्थिति में दो व्यक्तियों की आपसी रजामंदी को ही उनके सार्वजनिक रिश्ते का आधार माना जा सकता है? यह फैसला संकेत में इस प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ के रूप में देता है. सुख या सामान्य दशा में रजामंदी के मायने वही नहीं हो सकते, जो दुख की दशा में. रजामंदी की दावेदारी वाले हर रिश्ते के बारे में यह जानना जरूरी है कि उसके पीछे कोई मजबूरी तो नहीं छिपी, किसी किस्म के भय या लालच का सहारा तो नहीं लिया गया? न्यायालय ने ठीक लक्ष्य किया है कि तलाक का उक्त मामला कैंसर से पीड़ित पत्नी को बाधक मान कर असहाय छोड़ देने की जुगत भर है.
चूंकि पत्नी रोग के कारण लाचार है, इसलिए उपचार के लिए रकम जुटाने की मजबूरी में उसने तलाक के लिए रजामंदी दी है. तलाक की पहल पति ने की है और एक तरह से पत्नी की मजबूरी का लाभ उठाते हुए उसकी रजामंदी खरीद ली है. उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे समाज में नेह-नातों में आती नैतिक गिरावट पर चोट करनेवाला सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला एक नजीर साबित होगा.