झारखंड राज्य 13 साल की यात्रा तय कर चुका है. यह वक्त है मूल्यांकन का. कहां पहुंचे हैं हम? राज्य बनने के पहले कल्पना की गयी थी कि जब अपना राज्य होगा तो तेजी से विकास होगा, लोग समृद्ध बनेंगे, रोजगार मिलेगा, खनिज संपदा है तो विकास के लिए पैसे की कमी नहीं होगी. ये सपने अभी तक साकार नहीं हो सके.जिस बिहार से कट कर झारखंड राज्य बना, वह आगे निकल गया. आंकड़े इसके गवाह हैं.
13 साल में जहां झारखंड में प्रति व्यक्ति आय दोगुनी हुई, तो बिहार में यह तिगुनी हो गयी. विकास दर में भी झारखंड से बिहार लगभग दोगुनी गति पर चल रहा है. झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड भी आगे निकल गये हैं. ऐसी स्थिति में यही सवाल उठता है कि आखिर झारखंड के साथ परेशानी क्या है? राज्य बनने के बाद से ही यहां किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. कुछ छोटे दलों या निर्दलीयों के बल पर सरकार चलती रही. जब भी इन्हें मौका मिला, बारगेन करते रहे. सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग दबाव में रहे और ऐसे छोटे दलों या निर्दलीयों की मांग के सामने झुकते रहे.
लगभग सभी दल को झारखंड में शासन करने का मौका मिला पर झारखंड की तसवीर नहीं बदली. एमओयू होते रहे पर कंपनियां नहीं आयीं. जमीन का मामला नहीं सुलझा. नियुक्तियों की नीति नहीं बन सकी. जब भी कहीं भरती की बात उठी, स्थानीयता का मुद्दा साथ-साथ उठा. ठोस निर्णय लेने की किसी भी सरकार में हिम्मत नहीं दिखी. राजधानी की ही बात करें तो यह शहर अब चलने लायक नहीं रह गया है. ट्रैफिक जाम से लोग परेशान हैं. एक सरकार ने फ्लाइओवर बनाने का निर्णय लिया तो दूसरे ने इसे स्थगित कर दिया. सवाल वोट बैंक का है.
अगर शहर में अतिक्रमण नहीं हटेगा, सड़कें चौड़ी नहीं होगी, फ्लाइओवर नहीं बनेंगे तो जाम का इलाज क्या है? आबादी बढ़ रही है पर नया शहर नहीं बस रहा. हां, कुछ काम हुए हैं. इनमें रांची में बेहतरीन स्टेडियम शामिल है. राज्य तभी विकसित हो सकता है जब कड़े फैसले लिये जायें. हो सकता है कि इससे कुछ को नाराजगी हो. सभी को खुश नहीं रखा जा सकता. देखना यह चाहिए कि राज्यहितमें क्या है. किससे राज्य के लोगों का भला हो सकता है. इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए.