हर आदमी एक-दूसरे को शंका की दृष्टि से देखता है. एक आदमी दूसरे आदमी को शंका की नजर से इसलिए भी देखता है, क्योंकि उसके मन में यह भय बना है कि कहीं अनजान आदमी किसी बड़े वारदात को अंजमा न दे दे. आज यदि कोई अनजान आदमी नये शहर में जाता है, तो वह अपने संबंधी या जानकार के यहां ठहरने के बजाय होटलों में रुकना अधिक पसंद करता है, क्योंकि उसे पता है कि यदि वह अपने जानकारों के यहां ठहरने के लिए जाता है, तो रास्ते में कौन उसे किस नजर से देखे, कोई ठिकाना नहीं. वहीं दूसरी ओर, आपसी स्वार्थ बढ़ने की वजह से भी लोग आतिथ्य सत्कार करने से कतराने लगे हैं.
लोगों को यह लगने लगा है कि अतिथि के सत्कार के पीछे धन व्यय करना व्यर्थ है. अब तो लोग धन उसी स्थान पर खर्च करना बेहद पसंद करते हैं, जहां से उन्हें कुछ लाभ की किरण नजर आती है. समाज में हर व्यक्ति का मूल्यांकन लाभ और हानि से किया जाने लगा है. अमीर और गरीब दोनों ही तरह के लोगों में इस प्रकार की भावना बलवती होने लगी है. हम परंपरावादी आतिथ्य सत्कार से खुद को अलग-थलग करके आधुनिकता की होड़ में शामिल होने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत का परंपरावादी आतिथ्य सत्कार और यहां का संस्कार ही इसकी मूल पहचान है.