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अगर यही धर्म है तो फिर!

वह महामूरख अज्ञानी है. उसे नहीं मालूम कि धर्म क्या होता है. लेकिन धर्म को न जानने से उसे कभी कोई फर्क नहीं पड़ा, उसका कोई काम नहीं अटका. चूंकि संविधान में राज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है, अत: कभी-कभी उसके मन में यह जानने की इच्छा जरूर उठती है कि आखिर वह कौन-सी […]

वह महामूरख अज्ञानी है. उसे नहीं मालूम कि धर्म क्या होता है. लेकिन धर्म को न जानने से उसे कभी कोई फर्क नहीं पड़ा, उसका कोई काम नहीं अटका. चूंकि संविधान में राज्य को धर्मनिरपेक्ष घोषित किया गया है, अत: कभी-कभी उसके मन में यह जानने की इच्छा जरूर उठती है कि आखिर वह कौन-सी चीज है, जिसके प्रति सारे लोग निरपेक्ष बने हुए हैं. धर्म को जानने के लिए वह एक धर्मात्मा के पीछे पड़ गया. उधर धर्मात्मा धर्म के पीछे पड़े हुए थे, अर्थात धर्म द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चल रहे थे. वे धर्मात्मा थे, इसलिए कि उनकी आत्मा में धर्म का वास था. और धर्मात्मा लोगों को लगता ही नहीं, बल्कि पता होता है कि दूसरे किसी की आत्मा में धर्म का वास नहीं है.

धर्म-चालित कदमों से धर्मात्मा चले जा रहे थे. रास्ते में एक जानवर आ गया. वह सूअर था या गाय, यह अज्ञानी नहीं जान पाया. धर्मात्मा ज्ञानी थे, पहचान गये. पहचानते ही उन्हें गुस्सा आ गया. फलत: गोलियां दगीं, बम फूटे और लाशें बिछ गयीं. आसमान अनाथ बच्चों और विधवा औरतों के आर्तनाद से गूंजने लगा. धरती पर गिद्ध उतरने लगे.

लाशों को रौंदते हुए धर्मात्मा विजयी भाव से आगे बढ़े. उनकी विजय हुई होगी, क्योंकि धर्म की ही हमेशा विजय होती है. धर्मात्मा आगे बढ़े. चलते-चलते वह एक ताड़ीखाने में घुस गये. निकले तो उनकी आंखें लाल थीं और जीभ लटपटा रही थी. अज्ञानी समझा कि नशे के कारण उनका यह हाल हो गया है, पर असल में धर्मात्मा को गुस्सा आ गया था. लिहाजा फिर गोलियां दगीं, बम फूटे और लाशें बिछ गयीं. आसमान अनाथ बच्चों और विधवा औरतों के आर्तनाद से गूंजने लगा. धरती पर गिद्ध उतरने लगे. खून से लथपथ शरीर लिये धर्मात्मा फिर विजयी भाव से आगे बढ़े. इस बार भी उनकी ही विजय होनी थी, क्योंकि विजय हमेशा धर्म की ही होती है.

ताड़ीखाने से निकल कर धर्मात्मा एक बीड़ी की दुकान पर जाकर रुके. अचानक एक बार फिर उन्हें गुस्सा आ गया. फलस्वरूप कृपाणें निकल आयीं, तलवारें चमकने लगीं. दुकानें लुट गयीं, दुकानदार पिटे.

आगे देखने का साहस न रहा अज्ञानी में. वह लौट पड़ा अपनी अज्ञानमय दुनिया की ओर. लौटते हुए वह अपने सद्य: अर्जित ज्ञान को मथने लगा. धर्म वही, जो खून की नदियां बहा सके? धर्मात्मा वही, जो गांव के गांव उजाड़ सके? चलते-चलते उसने पीछे मुड़ कर देखा, धर्मात्मा एक हाथ में खंजर और दूसरे में नरमुंड लिये बीच सड़क पर नाच रहे थे. कैसे हैं ये धर्मात्मा- सोचा उसने, जो बिना खंजर की मदद के अपने परमात्मा से संबंध स्थापित नहीं कर पाते? कैसे ज्ञानी हैं ये, जो अपने को समझने के लिए अपने कंधों पर रखी जीती-जागती खोपड़ी को नाकाफी पाते हैं और एक मृत की खोपड़ी की सहायता लेते हैं?

अज्ञानी सोचने लगा कि अगर यही धर्म है, तो क्या इसके प्रति निरपेक्ष बने रहना बुद्धिमानी होगी? अगर धर्मात्मा अपने पीछे दंगे-फसाद ही छोड़ जाते हैं, तो क्या ऐसे लोगों के प्रति निरपेक्ष बने रहना कायरता नहीं? ऐसे और भी कई बेहूदे सवाल उसके मन में उठने लगे, क्योंकि वह अज्ञानी जो था.

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

drsureshkant@gmail.com

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