झारखंड-बिहार में आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तारियों से फिर यह बहस गर्म है कि आखिर इस मर्ज की दवा क्या हो. हर नेता एक ही बयान दे रहा है कि आतंकवाद पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. पर सवाल यह है कि जो मसला पूरे मुल्क के सामाजिक ताने-बाने के लिए चुनौती बन गया है, उससे राजनीति नहीं टकरायेगी तो कौन टकरायेगा! क्या आतंकवाद को सिर्फ कानून-व्यवस्था का विषय मान कर इससे लड़ा जा सकता है?
क्या आतंकवाद को इंसानियत के खिलाफ अपराध बता कर उसकी निंदा कर देने भर से अमन-चैन कायम हो जायेगा? बिल्कुल नहीं. अनुभव तो यही बताता है. हर साल दर्जनों युवकों को शक के आधार पर जेल में ठूंस दिया जाता है, जिस पर चिंता जताते हुए केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे राज्यों को चिट्ठी भी लिख चुके हैं. पर नतीजा सिफर है. जिन युवकों को जेल में डाला जाता है, उनके बारे में जांच के क्या नतीजे निकले, उन पर मुकदमा पूरा हुआ या नहीं, ये सब तथ्य गुमनामी में चले जाते हैं. कई तो बरसों बाद जेल से बेगुनाह छूटते हैं.
न्याय मिलने में यह देरी कोई कड़ा संदेश तो नहीं ही दे पाती, उल्टे बिना गुनाह साबित हुए युवाओं के बरसों जेल में बंद रहने से संबंधित समुदाय में गुस्सा और बढ़ता है. यह कठिन भले हो, पर इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि आतंकवाद को एक राजनीतिक विचारधारा, विकृत ही सही, के रूप में कबूल करना होगा. पुलिस, खुफिया एजेंसियां अपना काम करें, पर राजनीतिक लोगों को इसका मुकाबला राजनीतिक स्तर पर ही करना होगा. उन वजहों को तलाशना होगा जो लोगों में गुस्सा पैदा करती हैं, उन्हें आतंकवाद के रास्ते पर ले जाती हैं, और इसकी वैचारिक काट (काउंटर नैरेटिव) पेश करनी होगी.
राहुल गांधी ने हाल में इस बिंदु को उठाया, पर ईमानदारी से नहीं. दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति ने आतंकवाद का मसला हल करने की जगह, उसके बीज बोये. पंजाब में आतंकवाद कांग्रेस द्वारा भिंडरावाले को संरक्षण से जन्मा. आज राजनीति पंजाब में उसी भिंडरावाले का स्मारक बनवा रही है. 1993 में सिलसिलेवार धमाकों को जो नया सिलसिला शुरू हुआ, भाजपा ने उसकी बुनियाद बाबरी मसजिद ढहा कर डाली. हमारी राज्य सत्ता 84 के दंगों, बाबरी मसजिद विध्वंस व ऐसे अनेक मामलों में न्याय देने में विफल रही, जिसने संकट को और बढ़ाया है.