दो दलों की प्रमुखता के बावजूद देश की राजनीति वास्तव में दो-ध्रुवीय नहीं है. आज क्षेत्रीय दलों को भारतीय राजनीति का तीसरा खिलाड़ी कहा जा सकता है. लेकिन, क्षेत्रीय दलों की भूमिका भाजपा या कांग्रेस के लिए जरूरत के हिसाब से 272 का आंकड़ा पूरा करनेवाले ‘ताश के जोकर’ की ही ज्यादा रही है. इस प्रवृत्ति ने अब तक तीसरी शक्ति की वैकल्पिक राजनीति की संभावना पर ग्रहण लगा रखा है.
इस संभावना को तलाशने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में दिल्ली में आज 11 क्षेत्रीय दलों की एक बैठक होनेवाली है. इस बैठक में कम्युनिस्ट पार्टियों समेत जनता दल यूनाइटेड, एआइएडीएमके, बीजू जनता दल, जनता दल सेकुलर, झारखंड विकास मोरचा जैसे दलों के शामिल होने की संभावना है. सीपीएम महासचिव ने इसे ‘तीसरा मोरचा’ की जगह ‘सेकुलर दलों’ का मंच कहा है. वास्तव में तीसरे मोरचे की मुश्किलें यहीं से शुरू होती हैं. पिछले दो दशकों में जिस तरह से और जितनी बार ‘सेकुलरिज्म’ शब्द का इस्तेमाल अवसरवादी गंठबंधनों को वैध ठहराने के लिए किया गया है, उसने इस शब्द की राजनीतिक गरिमा को कम किया है.
यह समझना जरूरी है कि तीसरे मोरचे की राजनीति सिर्फ ‘सेकुलरिज्म के नारे’ के इर्द-गिर्द खड़ी नहीं की जा सकती है. जब तक तीसरा मोर्चा वैकल्पिक राजनीति का खाका पेश नहीं करेगा, अर्थव्यवस्था से लेकर देश की सुरक्षा तक के सवाल पर अपनी नीतियां घोषित नहीं करेगा, तब तक इसकी सफलता संदिग्ध ही रहेगी. 1989 में बनी वीपी सिंह के नेतृत्ववाली राष्ट्रीय मोरचा की सरकार का अनुभव हो या फिर 1996 में देवगौड़ा और गुजराल की संयुक्त मोरचा की सरकार का, तीसरा मोरचा घटकों के अंतर्विरोधों, साझा लक्ष्यों तथा कार्यक्रमों की अनुपस्थिति और क्षेत्रीय क्षत्रपों की निजी महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ता रहा है.
गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा की राजनीति करनेवाले दल अगर तीसरे मोरचे को लेकर वास्तव में गंभीर हैं, तो उन्हें सर्वप्रथम इस मोरचे का एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना चाहिए. उन्हें बताना चाहिए कि उनकी नीति-राजनीति किस तरह दोनों राष्ट्रीय दलों से भिन्न होगी. ऐसा नहीं हुआ, तो पूर्व की कोशिशों की तरह यह कवायद भी कागज पर ज्यादा, जमीन पर कम आकार ग्रहण करेगी.