।। चीन से लौट कर हरिवंश ।।
– जहां गढ़ा जाता है चीनी नेतृत्व
– चीन के कम्युनिस्ट पार्टी स्कूल की यात्रा
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का स्कूल बदलते चीन का प्रतिबिंब रहा है. कहें कि चीन के बदलने का वैचारिक उद्गम केंद्र. यह एक संस्थान चीनी संकल्प, रणनीति और कार्यपद्धति पर बहुत कुछ कहता है. बिना बताये. हमारी कोशिश, इस संस्थान को भारतीय संदर्भ में समझने, आंक ने व जानने की थी.
इसके ठीक उलट भारत में राजनीति की बागडोर जिन लोगों के हाथ है या जिन्हें हम भावी कर्णधार देख रहे हैं, उनका प्रोफाइल, चरित्र, मानस, ट्रेनिंग, कल्पना, संकल्प समझिए.
यह दुर्लभ अवसर था, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार. भारत के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने 24 अक्तूबर (2013) को ‘कम्युनिस्ट पार्टीज स्कूल’ (कम्युनिस्ट पार्टी के स्कूल) में व्याख्यान दिया. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के नरम और गरम विचारवाले चीनी कम्युनिस्टों को संबोधित किया. इस स्कूल के विशेषज्ञ चीनी सरकारी अफसरों–कर्मचारियों को भी घरेलू–विदेशी मसलों पर प्रशिक्षित करते हैं.
कुछ देश–विदेश के विशिष्ट नेताओं–मेहमानों को अपनी संसद में खास संबोधन के लिए बुलाते हैं, चीन के इस स्कूल में बोलने का न्योता/आमंत्रण, इसी स्तर का सम्मान है, ऐसा चीनी मानते हैं.
बहरहाल हम पत्रकार कम्युनिस्ट पार्टी के इस स्कूल के भव्य व्याख्यान कक्ष (प्रेक्षागृह) में लगभग 45 मिनट पहले पहुंचे. वहां कुछ अधिकारी थे. युवा उम्र के. सुरक्षा जांचवाले. भारत की तरह सुरक्षा का खौफ नहीं. हाल लगभग खाली. हाल में प्रधानमंत्री (भारत) के आने के ठीक 15 मिनट पहले, पंक्तिबद्ध, अत्यंत अनुशासित चीनी विद्यार्थी (इस कैंपस में अध्ययन क रनेवाले हर उम्र के चीनी को विद्यार्थी ही कहते हैं) आये.
पूरा हाल बिल्कुल भरा. तिल रखने की जगह नहीं. पर एक शब्द, आवाज नहीं. गप नहीं. टीका–टिप्पणी नहीं. हर सीट पर अनुवाद की मशीन. चीनी से अंगरेजी या अंगरेजी से चीनी में सुन लें. हर सीट पर पीने के पानी के बोतल उपलब्ध. पूरी आबो–हवा में एक अद्भुत अनुशासन, गरिमा और गंभीरता.
भारत में किसी हाल में ऐसे किसी विशिष्ट व्यक्ति को सुनने जाइए, उस व्यक्ति के आगमन के बाद भी गप, आवाज, इधर से उधर बतकही. शालीनता, अनुशासन को भारतीय समाज ने कैसे बोझ और फालतू चीज मान लिया है, इसका पल–पल दृश्य. भारत में व्याख्यान के बीच भी कानाफूसी, टीका–टिप्पणी. इसके ठीक उलट चीन में शालीनता–गरिमा व खामोशी.
बहरहाल इस कम्युनिस्ट पार्टी स्कूल के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई. वैसे तो बीजिंग शहर या चीन को देखना ही अनुभव है. यूरोप और अमेरिका ने जो 100-200 वर्षो में किया. वह सब 20-30 वर्षो में करनेवाली चीनी कौम के संकल्प का पग–पग पर दृश्य–पहचान. सुना था, पहले सपने आते हैं, कल्पना उभरती है. फिर विचार बनते हैं, संकल्प बनता है, मानस बनता है, फिर देश.
देश के नेतृत्व के सपने–कल्पना यहां संकल्प के सांचे में ढलते हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का मानस–रणनीति बनाने पर प्रशिक्षण–चर्चा, नये विचार, नयी शासन कला वगैरह पर यहां प्रशिक्षण होता है.
इस परिसर में घुसते ही लगा, दुनिया के किसी ‘सेंटर ऑफ एक्सेलेंस’ (अध्ययन का उत्कृष्ट, वर्ल्ड क्लास संस्थान) में आये हैं. सर्वश्रेष्ठ आधारभूत ढांचा. अद्भुत ऑडिटोरियम, कैफेटेरिया, हॉस्टल, हरियाली से आच्छादित कैंपस, खूबसूरत तालाब, जिमनेजियम. अत्यंत साफ –सुथरा प्राकृतिक सौंदर्य–परिवेश.
31,200 वर्ग फुट में फैले कान्फ्रेंस सेंटर में एक साथ 680 लोगों के बैठने की व्यवस्था, 36,000 वर्गफुट में अलग से 2,000 लोगों का एक साथ प्रशिक्षण. जिमनेजियम, 23,348 वर्गमीटर में पसरा. स्विमिंग पूल, टेबुल टेनिस, स्क्वैश के लिए खास अलग कमरे. पूरी तरह स्वस्थ (फिट) रहने के हर उपकरण–सुविधाएं. यानी विचारों में, सपनों में, कर्मबोध से लैस करने, प्रशिक्षित करने, अनुशासित मानस विकसित करने के साथ–साथ स्वस्थ रखने का केंद्र.
यह ‘द सेंट्रल पार्टी स्कूल’ अनेक पत्र–पत्रिकाएं भी प्रकाशित करता है. मसलन, ‘स्टडी टाइम्स’, ‘थ्योरी फोरम’, ‘चाइनीज काडर ट्रिब्यून’, ‘जर्नल ऑफ द पार्टी स्कूल ऑफ द सेंट्रल कमेटी ऑफ सीपीसी’ वगैरह. साथ में अनेक पुस्तकों का प्रकाशन, दृश्य–श्रव्य उपकरण. यहां लाइब्रेरी में 12 लाख किताबें हैं.
वेबसाइट में डाटाबेस बहुत बड़ा व व्यापक है. फिलहाल यहां तीन विषयों पर काम होता है. मार्क्सवाद का दर्शन, वैज्ञानिक समाजवाद, अंतरराष्ट्रीय साम्यवादी आंदोलन. साथ में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास. पर हर दर्शन की तलाश में चीनी संदर्भ का होना आवश्यक है.
यहां पीएचडी वगैरह पर अलग से काम होता है. पढ़ानेवालों में 148 पीएचडी हैं. 164 सुपरवाइजर हैं. कुल 1100 स्टाफ हैं. हर सेमेस्टर में 1600 विद्यार्थी होते हैं. माओ, तेंग, मार्क्स, लेनिन, सामयिक विश्व अर्थव्यवस्था, राजनीति, आधुनिक विश्व में विज्ञान–तकनीक, कानून, विश्व पटल पर सेना का मूल्यांकन, आधुनिक दुनिया में वैचारिक ट्रेंड्स, आधुनिक संसार में जटिल प्रशासन–अर्थव्यवस्था–राजनीति, भावी तकनीक या विज्ञान को व्यावहारिक धरातल पर सफल बनाने की कला का प्रशिक्षण.
इनकी जटिलताओं को समझने की कोशिश. सच की व्याख्या. पर याद रखिए, हर विषय को चीनी संदर्भ (देश, काल, परिस्थिति) की पृष्ठभूमि में समझना है. हवा में नहीं. महज सिद्धांत नहीं. चीनी मिट्टी, आबोहवा, मानस, संस्कृति के संदर्भ में हर विचार का मूल्यांकन. सामान्य भाषा में कहें, तो देश चलाने का प्रशिक्षण केंद्र. अब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का यह सेंट्रल स्कूल दुनिया के कई विशिष्ट संस्थानों–देशों से जुड़ा है.
दुनिया के 30 सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों, शोध संस्थानों से चीनी सेंट्रल पार्टी स्कूल का रिश्ता है. दुनिया के बड़े राजनेता, मशहूर विद्वान, पढ़ाने–लेर देनेवाले विशेषज्ञ यहां आते रहते हैं. गौर करिए, इस प्रशिक्षण केंद्र के सुंदर प्रांगण, बेहतरीन कमरों व सुविधाओं को भारतीय मानस में या कम्युनिस्ट मानस में देखेंगे, तो कहेंगे, यह भोग–विलास का केंद्र है.
दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पश्चिमी संस्थाओं के विशेषज्ञ विद्वान (खास तौर से अमेरिकी) यहां चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के काडर को पढ़ाने आते हैं, भारी खर्च पर. हमारे यहां यह व्यवस्था हो, तो हम इसे बुजरुआवादी, धन का अपव्यय कहेंगे. याद रखिए इसी स्कूल में इन्हीं विद्यार्थियों में से चीनी शासक निकलते हैं. पार्टी के भावी सूत्रधार व कर्णधार भी.
इस चीनी स्कूल की कमान कैसे हाथों में रही है? चीन में इसका महत्व क्या है? 2007-2013 तक सी जिनपिंग इसके प्रमुख थे. वह आज चीन के राष्ट्रपति हैं. हू जिंताओ (1993-2002), हू गुओफेंग (1977-1982), ली फेंग (1963-1966), ली शाओची (1948-1953), माओ त्सेतुंग (1942-1947) वगैरह इसके प्रमुख रहे हैं. सभी चीन के कर्णधार–वैचारिक भाष्यकार. स्वप्नदर्शी. स्कूल का इतिहास व महत्व बड़ा रोचक है.
इसकी स्थापना मार्क्स स्कूल ऑफ कम्युनिज्म के रूप में 1933 में हुई. जियांगसी प्रांत में. चीन की क्रांति–बदलाव के दौर में अनेक जगहों की यात्रा करता यह स्कूल 1948 में बीजिंग पहुंचा. बीजिंग के पुराने राजवंशों के ‘समर पैलेस’ व ‘ओल्ड समर पैलेस’ के बगल में इसका विशाल–भव्य प्रांगण है. इसका इतिहास रोचक है.
कैसे समय के साथ यह संस्थान, इसका चरित्र, प्रोफाइल, इसका पाठ्यक्र म बदला? यह बदलते चीन का प्रतिबिंब रहा है. कहें कि चीन के बदलने का वैचारिक उद्गम केंद्र. यह एक संस्थान चीनी संकल्प, रणनीति और कार्यपद्धति पर बहुत कुछ कहता है. बिना बताये. हमारी कोशिश, इस संस्थान को भारतीय संदर्भ में समझने, आंक ने व जानने की थी. इसके ठीक उलट भारत में राजनीति की बागडोर जिन लोगों के हाथ है या जिन्हें हम भावी कर्णधार देख रहे हैं, उनका प्रोफाइल, चरित्र, मानस, ट्रेनिंग, कल्पना, संकल्प समझिए. भारत में नये नेता किस पृष्ठभूमि से निकल रहे हैं? किस माहौल में पल, बढ़ और विकसित हो रहे हैं, यह समझिए. स्थानीय स्तर पर जो मर्डर, किडनैपिंग, बिना परिश्रम धन हड़पने, सरकारी धन को दलाली या लूट से घर पहुंचाने, एक –एक सरकारी फाइल में एक–एक कदम पर अड़चन डाल कर वसूली कला में पारंगत. धर्म, जाति, क्षेत्र, गोत्र में बांटने की कला में माहिर हैं, ऐसे लोग भारत की राजनीति में आगे आकर नीचे से ऊपर तक प्रभावी हो रहे हैं.
यहां दरबारी, दबाव बनानेवाले, जी–हुजूरी करनेवाले, चापलूसी में पारंगत लोग, देश के भविष्य में निर्णायक हो रहे हैं. विधानमंडल और संसद में कितने ऐसे लोग बैठे हैं, जिन्हें जेलों में होना चाहिए, वे आंकड़े भी याद कर लें. भारत की राजनीति में इस पृष्ठभूमि, उर्वरा धरती में नेताओं के संस्कार, चरित्र, कार्यशैली या मानस पल रहे हैं. महान क्रांतिकारी, दार्शनिक और अध्यात्म के शिखर पर पहुंचे पंडित रामनंदन मिश्र के शब्दों में कहें, तो बीज ही सड़ गया है.
इसे बेहतर से बेहतर मिट्टी में डालिए, कुछ नहीं होगा. अब गौर करिए, नयी बनती दुनिया कैसी है, जिसमें शहरीकरण का भारी दवाब है. दुनिया में गांव से शहर में आनेवाले सबसे अधिक लोग भारत के हैं. ये किन स्लमों में रहेंगे? इन्हें क्या रोजगार मिलेगा? हमारी जनसंख्या कितनी बढ़ेगी? उसके अनुरूप कितने प्राकृतिक संसाधन हमारे पास हैं? भविष्य में कितनी बिजली चाहिए, कितनी सड़क की जरूरत है, अस्पताल की जरूरत है, बेहतर शिक्षण संस्थानों की जरूरत है, कितनी नौकरियां चाहिए, भारत में कहीं किसी दल के पास इसका थिंकटैंक है? अपवाद लोगों को छोड़ दें (जो हर दल में हैं), तो किन नेताओं के पास इन चुनौतियों के अनुरूप सपने या ब्लूपिंट्र हैं?
चीन और भारत ने लगभग साथ आजाद होकर यात्रा शुरू की. तब चीन का इंफ्रास्ट्रक्चर (रेल, हवाई अड्डे, सड़क, पुल वगैरह) भारत से पिछड़े थे. आज वह दुनिया के सर्वश्रेष्ठ देशों में हैं, इन चीजों में. भारत से लगभग पचास–सौ वर्ष आगे. उसकी ट्रेनें, पांच सौ प्रति किलोमीटर की रफ्तार से चलती हैं. दुनिया के लिए पहेली. वहां के सार्वजनिक क्षेत्र की सरकारी कंपनियां, दुनिया की फार्चून पांच सौ कंपनियों में सिरमौर हैं.
भारत की ताजा चुनौती है कि लाखों करोड़ लगा देने के बाद भी एयर इंडिया को बचाने की बेचैनी से हम गुजर रहे हैं. इसी तरह विदेश मंत्रलय, गृह मंत्रलय, सेना, सुरक्षा वगैरह हर विषय पर चीन की जरूरत, भावी चुनौतियां और उसकी रणनीति पर चीनी नेताओं को यहां प्रशिक्षण मिलता है.
भारत के किसी राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दल के पास यह सोचने की क्षमता, योग्यता, दृष्टि या विजन है? हमारे नेता बारहवीं सदी की ओर पीछे लौटने के मानस से विकसित हो रहे हैं. चीन के इस प्रशिक्षण संस्थान में 21-22वीं सदी के ब्लूप्रिंट पर बात हो रही है. हमारे और चीन के राजनीतिक नेतृत्व (अपवाद पदों पर बैठे लोगों को छोड़ कर) में यही फर्क है. गंवई भाषा में कहें, तो एक तरफ राजा भोज और दूसरी तरफ भोजवा गंवार. इन दोनों के बीच क्या मुकाबला हो सकता है? यह भारत के हर आदमी को समझ लेना चाहिए? हम भारतीय भी विचित्र हैं.
हमें श्रेष्ठ व्यवस्था चाहिए, अच्छी सड़कें चाहिए, बिजली चाहिए, पानी चाहिए, भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था चाहिए. सबकुछ वर्ल्ड क्लास चाहिए. पर श्रेष्ठ व्यवस्था बनाने के लिए हम व्यवस्था की कमान किन हाथों में सौपेंगे? पंचायत से लेकर ऊपर तक अधिसंख्य ऐसे लोग हैं, जो किन्हीं और क्षेत्रों में पारंगत और विशिष्ट हो सकते हैं, पर चरित्र में, सत्यनिष्ठा में, ईमानदारी में, प्रदर्शन में, योग्यता में, इफीसिएंशी में कहीं नहीं ठहरते. सड़ी–गली मिट्टी से बढ़िया घड़ा कैसे बनेगा?
ऐसा नहीं है कि भारत के महान नेताओं के पास भारत के भविष्य का कोई ब्लूप्रिंट या सपना या आकार नहीं था. गांधी और उनकी पीढ़ी को छोड़ दें. उस पीढ़ी ने तो एक से एक विशेषज्ञ खड़े किये. अलग–अलग क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रतिभाओं को न्योता.
सार्वजनिक जीवन में जेसी कुमारप्पा, आर्य नायकम, गिजू भाई जैसे अनेक ऐसे लोग हुए, जिन्होंने शिक्षा, तकनीक, उद्योग–धंधे सबके बारे में एक मुकम्मल सपना देखा. भारतीय परिवेश–संदर्भ में. उनके पास विजन था. राजनीति में शामिल लोगों के लिए प्रशिक्षण और चिंतन शिविर चलते थे.
किन्हें याद है, समाजवादी साने गुरुजी. गांधी–लोहिया–जेपी के बाद की पीढ़ी को देखें, तो मधु लिमये, एसएम जोशी, जार्ज फर्नाडिस वगैरह ने भी चिंतन शिविर लगवाये. पुणो में श्रमिक विद्यापीठ का गठन हुआ, ताकि मजदूरों को प्रशिक्षित किया जा सके. ट्रेड यूनियन, ब्लैकमेलिंग का आधार न बने, इसके लिए.
ऐसा प्रयास या काम कम्युनिस्टों ने भी किया. अपने काडरों को प्रशिक्षित करने का काम. यह काम नक्सलियों ने बखूबी किया. यह काम आरएसएस और जनसंघ के लोगों ने भी किया. आजीवन सेवावृत्ति में रहकर नाना जी देशमुख ने दीनदयाल उपाध्याय संस्थान बनाया, भारत की चुनौतियों के बारे में अध्ययन के लिए. पार्टी के दृष्टिकोण से. कांग्रेस तो सबसे पहले ऐसे शिविरों और प्रशिक्षण केंद्रों को शुरू करनेवाली संस्था रही.
समाजवादियों ने बहुत बाद तक इस परंपरा को आगे बढ़ाया. उनके अनेक शिविरों में क्या प्रशिक्षण होते थे, विदेशनीति से गृहनीति और अर्थनीति पर पार्टी का सोच और चिंतन क्या हो, इस पर बहस होती थी. हर पार्टी का वार्षिक अधिवेशन होता था. पार्टियों में अंदरूनी लोकतंत्र जिंदा था. विचारों के आधार पर सदस्य बनाने की पहल होती थी. तब फर्जी मेंबरशिप ड्राइव नहीं था.
बहुत बाद तक हर पार्टी या विचारधारा या गुट का अपना प्रकाशन था. वैचारिक मुखपत्र. कांग्रेस का नेशनल हेराल्ड, सीपीआइ का पेट्रिआट या लिंक, भाजपा–आरएसएस का मदरलैंड, पांचजन्य वगैरह. नक्सलियों, कम्युनिस्टों के अन्य प्रकाशन भी थे. न्यू एज वगैरह. आज भी माकपा के बंगाल व मलयालम में अखबार हैं. इन फोरमों से पार्टी नेतृत्व अपने कार्यकर्ताओं को वैचारिक आधार पर प्रशिक्षित करता था.
आज भारत में कोई दल अपने कार्यकर्ताओं से संवाद करना चाहे, तो क्या रास्ता है? सिवाय अखबार और टीवी के. भारत में दलों के पार्टी स्ट्रक्चर ढह गये है. हमने चीजों को संस्थागत विकसित करने की कोशिश नहीं की और संस्थाएं ही देश को आगे ले जाती हैं, चीन का यह स्कूल इसका प्रमाण है.
गांधी–लोहिया–जेपी या अन्य दलों के जो बड़े नेता हुए, उनके कार्यकाल में या उनके प्रयास से जो बड़ी संस्थाएं बनीं, जिनकी परिकल्पना में चीन के कम्युनिस्ट पार्टी स्कूल जैसा ही सपना था, वे आज कहां हैं? जेपी ने बनारस में गांधियन इंस्टीट्यूट बनाया. गांधी–नेहरू के नाम पर भी संस्थाएं बनीं.
आज या तो ऐसी संस्थाएं ध्वस्त हो रही हैं या सरकारी फंड लेने और चीजों को मैनेज करने का काम. देश–समाज का सपना कहां है? किन जगहों पर भारत चलानेवाले लोग प्रशिक्षित किये जा रहे हैं, उनका चरित्र गढ़ा जा रहा है? राजीव गांधी ने एक पहल की थी. 1984 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने सांसदों के प्रशिक्षण की शुरुआत की. विशेषज्ञों द्वारा.
पर आज वह सब प्रयास कहां है? हमारे विधायक–सांसद तो हर चीज में खुद को पारंगत मानते हैं, पर चीन में? एक चीनी प्रसंग से समझना आसान होगा. 2008 में जब इस कम्युनिस्ट पार्टी स्कूल के प्रमुख चीन के मौजूदा राष्ट्रपति सी जिनपिंग थे, तब का एक प्रसंग. पार्टी स्कूल ने चीन के 35 बहुत बड़े निवेशकर्ताओं–उद्यमियों को न्योता. देश में निजी उद्योगों को एक नये स्तर पर ले जाने के लिए. आरंभ में 34 बड़े निजी उद्यमियों को न्योता गया.
35वें उद्यमी ने याचना कर अपने लिए निमंत्रण का बंदोबस्त किया. चीन में कुल 2800 इस तरह के प्रशिक्षण केंद्र हैं, पर इसका मुख्यालय यह संस्था है. उन संस्थाओं में भी छोटे स्तर के निवेशकर्ता बुलाये जाते हैं. उन्हें पार्टी इतिहास, देश के हालात के बारे में बताया जाता है. जो देश के सबसे बड़े 35 निवेशकर्ता बीजिंग के इस प्रमुख प्रशिक्षण केंद्र में आये, उन्हें वहां के विद्यार्थियों के साथ रखा गया.
इस मुख्य प्रशिक्षण केंद्र में पूरे देश की विशिष्ट प्रतिभाएं बुलायी जाती हैं. यहीं चीन के भावी सूत्रधार, कर्णधार हैं. देश चलानेवाले सबसे महत्वपूर्ण लोग भी यहां लेक्चर देने आते हैं. इस उद्यमी समूह में टेक्नोलॉजी और नये मीडिया बिजनेस में जिन लोगों ने बहुत ऊंची जगह बना ली थी, दुनिया में अपनी पहचान बना ली थी, उन्हें बुलाया गया था.
चीन के इस सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान में आने का निमंत्रण ऐसा ही था, जैसे हार्वर्ड में एमबीए करने के लिए अमेरिका के भावी नेता आते हैं. इन उद्यमियों के लिए इस पार्टी स्कूल में बहुत आरामदेह व्यवस्था की गयी थी. सबसे मंहगा लिनेवो टीवी कमरे में लगे थे. एलसीडी स्क्रीन, वायरलेस इंटरनेट, 50 मीटर बड़ा स्विमिंग पूल, टेबुल टेनिस, स्क्वैश कोर्ट, अधुनातन जिमनेजियम में एक–एक आदमी के लिए निजी ट्रेनर उपलब्ध था.
जैसे बच्चों को जब हॉस्टल में डालते हैं, तो उन्हें एहसास होता है कि हम कहां हैं, उसी तरह चीन के इन सर्वश्रेष्ठ उद्यमियों को लगा कि वे चीन चलानेवालों, नीति निर्धारकों के साथ हैं. इनके लिए कैंटीन में खाना मुफ्त था, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को पांच रेन रोज देना पड़ता था.
भावी चीनी नेताओं से इनके लिए अधिक सुविधा व व्यवस्था थी. एक उद्यमी ने कहा भी जो देश चलानेवाले प्रमुख लोग थे, उनके मुकाबले हमें अधिक सुविधाएं दी गयीं. वहीं पर प्रदूषण नियंत्रण यंत्र बेचने और रेलवे यातायात के बेहतर उपकरण बेचने के अनेक बड़े सौदे भी हुए. पार्टी के विचारों, माओ के विचार, तेंग सियाओपिंग के सिद्धांत से भी इन चीनी उद्यमियों का परिचय हुआ.
सेना से लेकर अंतरराष्ट्रीय मसलों पर बात हुई. शिक्षा, बेहतर प्रशिक्षित मानव संपदा पर दीर्घकालीन विजन. अंत में इन निवेशकों को एहसास हुआ कि चीन चलानेवाले बड़े नेताओं के साथ बैठ कर वे देश की रचना की भूमिका में कैसे काम कर सकते हैं? इस समूह को पार्टी के तत्कालीन प्रमुख सी जिनपिंग (अब राष्ट्रपति) ने संबोधित किया, तो इन लोगों को लगा कि कैसे वे चीन के हिस्से हैं? चीनी परिवार के हिस्से हैं, जिसे चीन को आगे ले जाना है.
आज भारत में क्या हाल है? हर पार्टी, बड़ा नेता, पूरी राजनीति उद्योग की दुनिया के पैसे के बल चल रही है. वे रात में इनसे मिलते हैं. डील करते हैं. अपने लिए, अपनी पार्टी के लिए. पर उनमें साहस नहीं है कि वे दिन में इन निवेशकों के साथ बैठ कर देश के लिए बात करें. भारतीय राजनीतिक दल सपनाविहीन हो गये हैं.
ऐसा नहीं है कि दलों के पास पैसे नहीं है. 2011 में कांग्रेस को 2009 करोड़ की आमद कूपन बेचने से हुई. भाजपा को कूपन बेचने और लोगों से सहयोग के रूप में 995 करोड़ मिले. बसपा को सहयोग राशि 438 करोड़ मिली. माकपा को सहयोग से 417 करोड़ मिले. सपा को डोनेशन से 228 करोड़ मिले. जदयू को कूपन बेचने और मेंबरशिप से 27 करोड़ मिले.
तृणमूल कांग्रेस को डोनेशन से 12 करोड़ मिले (देखें, इकनॉमिक टाइम्स-25.10.2013). पर इनमें से किसी एक पार्टी के पास आज कोई ट्रेनिंग स्कूल है, जहां वह अपने विचारों, सिद्धांतों के आधार पर शासन से लेकर हर क्षेत्र में कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का काम करती हो? पंचायत स्तर से लेकर केंद्र स्तर तक कहीं किसी दल के पास प्रशिक्षण केंद्र है? न वार्षिक अधिवेशन होते हैं, न चिंतन शिविर होते हैं, न वैचारिक मंथन होते हैं? जब भारतीय राजनीतिक दल गरीब थे, तब ऐसा नहीं था.
तब उनमें चरित्र था और यह सब सपना था, तब तो कामराज जैसे अपढ़ लोग सबसे गरीब तबके से आये और भारतीय राजनीति में वह लकीर खींच गये, जो अब विदेशों से पढ़ कर आये बड़े नेताओं के स्वनामधन्य वंशज भी नहीं कर पा रहे हैं. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का यह स्कूल भारत के मौजूदा हालात को समझने का एक कारगर माध्यम है.