भारत के लिए अफ्रीका में नयी संभावनाएं दिख रही हैं, जो भारत को भू-सामरिक रूप से मजबूत करने में सहायक होंगी. अब देखना यह है कि भारतीय राजनय इसे कितनी गंभीरता से लेता है.
भारत और अफ्रीका के बीच रिश्ते इतिहास के निर्माण से लेकर साम्राज्यों के खिलाफ संघर्षों की विरासतों से संपन्न हैं. यही वजह है कि एफ्रो-एशियाई ब्रदरहुड हमारी विदेश नीति का आरंभ से ही एक महत्वपूर्ण घटक रहा है. भारत ने नामीबिया, जिम्बाब्वे, अंगोला, तंजानिया, जाम्बिया, मोजाम्बिक और गिनी बिसाऊ को उनके संघर्ष के दौर में महत्वपूर्ण मदद दी, दक्षिणी अफ्रीकी रंगभेद संघर्ष को समर्थन देकर इसे सिद्ध भी किया है. भारत-अफ्रीका संबंधों के इस अध्याय को नयी विश्वव्यवस्था में उपज रही कुछ चुनौतियों के दृष्टिगत एक रणनीतिक स्वरूप देने की जरूरत है. इस लिहाज से 26 से 29 अक्तूबर तक नयी दिल्ली में हो रहा भारत-अफ्रीका फोरम का तीसरा सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है.
भारत-अफ्रीका सम्मेलन का उद्देश्य दोनों पक्षों के बीच आपसी मेलजोल को नये स्तर पर पहुंचाना है. इसके जरिये कुछ नयी साझेदारियाें को भी विकसित करने का प्रयास होगा, जिसमें व्यापार, निवेश, तकनीक, कौशल विकास, सुरक्षा और कई ऐसी कारोबारी संभावनाओं की तलाश शामिल हैं. भारत व अफ्रीका के बीच वर्तमान में करीब 75 अरब डाॅलर का व्यापार है. पिछले चार साल के दौरान इस क्षेत्र में भारतीय निवेश भी 7.5 अरब डाॅलर तक पहुंचा है तथा 41 अफ्रीकी देशों में 137 परियोजनाओं का क्रियान्वयन किया गया है. ये आंकड़े निरपेक्ष प्रगति के लिहाज से ठीक हो सकते हंै, परंतु सापेक्षता की दृष्टि से ये भारत को अमेरिका और चीन जैसे देशों से बहुत पीछे धकेल देते हैं. इसलिए जरूरी है कि भारत चीन के बढ़ते आर्थिक-सामरिक तंत्र का काउंटर करने के लिए अफ्रीकी देशों को साथ लेकर आगे बढ़े. तभी वह एशिया और विशेषकर हिंद महासागर में शक्ति संतुलन स्थापित करने में कामयाब होगा.
प्रधानमंत्री मोदी प्रोएक्टिव व फास्ट ट्रैक की विदेश नीति के समर्थक हैं और इसे समृद्ध बनाने के लिए वे कल्चरल कनेक्टिविटी तथा हेरिटेज को एक मौलिक तत्व के रूप में देखते हैं. इन आयामों को जोड़ने के लिहाज से यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है. प्रधानमंत्री अफ्रीकी कार्ड का इस्तेमाल एक तरफ संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में भारत की दावेदारी के मामले से लेकर अन्य कई क्षेत्रों में भी कर सकते हैं. साथ ही खनिज संसाधनों से संपन्न 54 अफ्रीकी देशों के साथ निर्णायक आर्थिक व तकनीकी साझेदारी स्थापित कर भारतीय अर्थव्यवस्था को नया फलक दे सकते हैं और चीन की विस्तारवादी नीतियों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकते हैं. गौरतलब है कि मौजूदा सदी में अफ्रीका और एशिया की अर्थव्यवस्थाएं वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगी. कई अफ्रीकी देशों में चीन के खिलाफ आक्रोश उभर रहा है, जिसका इस्तेमाल कर भारत चीन को न केवल अफ्रीका में, बल्कि एशिया में भी काउंटर कर सकता है.
चीन और अफ्रीका के बीच होनेवाले व्यापार के कुल मूल्य में प्रति वर्ष लगभग 40 प्रतिशत की वृद्धि होती है. चीन अफ्रीका में तीन मोर्चों पर काम कर रहा है. कर्ज देना, ताकि अफ्रीका उनके लिए कच्चे माल का सबसे बेहतर स्रोत बन सके और निर्मित माल के लिए एकाधिकारवादी बाजार स्थापित करना, अफ्रीका के प्राकृतिक और भौतिक संसाधनों में निवेशों के जरिये मानव संसाधन पर भी नियंत्रण स्थापित कर लेना और अपनी बड़ी आबादी को भेज कर जनसांख्यिकीय व राजनीतिक स्थितियों में नये संतुलन का निर्माण करना. चीन वहां नये संघर्षों को जन्म देने का काम कर रहा है और अमेरिका व यूरोप उसे अपने हथियारों के लिए उभरते हुए बाजार के रूप में देख रहे हैं. यही कारण है कि चीन और और अफ्रीका का आपसी व्यापार लगभग 200 बिलियन डॉलर के आंकड़े तक पहुंच गया है. हालांकि, अब चीन की अर्थव्यवस्था का बुलबुला फूटता दिख रहा है और चीन में अफ्रीकी कच्चे माल की मांग घटने लगी है. फलतः अफ्रीकी देशों की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर पड़ना तय है. अब भारत को चाहिए कि चीन के अफ्रीकी माॅडल के विपरीत भारत के सामाजिक-आर्थिक माॅडल को अफ्रीकी देशों में पेश करे, जिससे अफ्रीकी देशों की सोशल डायनाॅमिक्स बदल सके.
बहरहाल, भारत के लिए अफ्रीका में नयी संभावनाएं दिख रही हैं, जो पिछड़े और हिंसाग्रस्त अफ्रीकी देशों को आगे बढ़ने और भारत को भू-सामरिक रूप से मजबूत करने में सहायक होंगी. अब देखना यह है कि भारतीय राजनय इसे कितनी गंभीरता से लेता है और संभावनाओं को परिणामों में बदलने में कितना कामयाब होता है.
डॉ रहीस िसंह
विदेश मामलों के जानकार
raheessingh@gmail.com