चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस
जानते सभी हैं कि देश की विभिन्न जेलों में फिलहाल क्षमता से ज्यादा कैदी रखे गये हैं, लेकिन जेलों के कैदियों से भरते जाने के सही कारण का पता अकसर लोगों को नहीं होता. सामान्य बुद्धि यही कहेगी कि जेलों में कैदी ज्यादा हैं, यह इस बात का भी संकेत हो सकता है कि समाज में अपराध बढ़ रहे हों और बढ़ते अपराधों पर रोक लगाने के लिए प्रशासन एकदम चौकस हो गया हो. लेकिन, सच्चाई उससे बहुत हट कर होती है, इतनी अलग और विचित्र कि सहज विश्वास ही ना हो.
नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के नये आंकड़ों के मुताबिक, देश में विभिन्न किस्म की कुल 1,387 जेलें हैं. जेलों की क्षमता के हिसाब से इनमें एक समय में तकरीबन साढ़े तीन लाख (3,56,561) कैदियों को रखा जा सकता है, लेकिन फिलहाल इन जेलों में सवा चार लाख कैदी बंद हैं और इनमें से दो-तिहाई (2,82,879) विचाराधीन कैदी हैं.
कैदियों की संख्या में दो-तिहाई के विचाराधीन होने का तथ्य संकेत करता है कि उनके मामले की सुनवाई अपेक्षित गति से नहीं हो रही है. सुनवाई की अपेक्षित गति धीमी क्यों है? क्या इस कारण कि अदालतों की संख्या कम है और अदालतें लंबित मामलों के निपटारे के बोझ से कराह रहीं हैं? नहीं, कुछ और वजहें भी हैं.
राजस्थान का उदाहरण लें. राजस्थान में जेल-प्रशासन एक-तिहाई विचाराधीन कैदियों को सुनवाई की तारीख पर अदालत में पेश नहीं कर पाता. आप सोच सकते हैं क्यों? वहां ऐसा ना हो पाने की वजह है एस्काॅर्ट के लिए पर्याप्त संख्या में पुलिस-बल का ना होना!
मानवाधिकारों के लिए सक्रिय कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआइ) के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, बीते बीस वर्षों में राजस्थान की जेलों में बंदियों की संख्या में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन कैदियों को कोर्ट तक ले जाने-लानेवाले पुलिस एस्काॅर्ट बल की संख्या उतनी ही है, जितनी 1970 के दशक में थी.
इस अध्ययन के तथ्य बताते हैं कि राजस्थान में रोजाना औसतन 1,618 कैदियों को सुनवाई के लिए कोर्ट में पेश करने की जरूरत होती है. इतने कैदियों को कोर्ट में पहुंचाने के लिए जेल-प्रशासन को हासिल होते हैं मात्र 874 पुलिसकर्मी. नतीतजन, कोर्ट में रोज औसतन 1,083 कैदियों की ही पेशी हो पाती है और एक-तिहाई से ज्यादा कैदी अगली पेशी का इंतजार करते रह जाते हैं.
कानूनन किसी विचाराधीन कैदी की दो सुनवाइयों के बीच अधिकतम 15 दिन से ज्यादा का अंतराल नहीं हो सकता, इसलिए राजस्थान जेल-प्रशासन ने इससे बचने के लिए एक नायाब नुस्खा निकाला है. सीएचआरआइ के अनुसार, ‘कैदियों को कोर्ट तक पहुंचाने के लिए जरूरी पुलिस एस्कार्ट-बल की कमी ने एक खतरनाक प्रवृत्ति को जन्म दिया है. कैदी की जगह उसके नाम पर जारी वारंट को कोर्ट में पेश कर दिया जाता है, जबकि कैदी स्वयं जेल में बंद रहता है.
कोर्ट का किरानी वारंट के ऊपर एक ठप्पा जड़ देता है, जिस पर अगली पेशी की तारीख लिखी होती है और यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है.’
सीएचआरआइ के अध्ययन के निष्कर्षों के मुताबिक, जयपुर, जोधपुर, कोटा, भरतपुर, अलवर, अजमेर, बीकानेर, झालवाड़, धौलपुर और सीकर, राजस्थान के वे दस शीर्ष जिले हैं, जहां निर्धारित तारीख पर कोर्ट में बंदियों की ना-पेशी की तादाद सबसे ज्यादा है.
राज्य में ना-पेशी की कुल संख्या का 75 फीसदी हिस्सा इन्हीं जिलों से संबंधित है. जोधपुर और भरतपुर केंद्रीय कारागार में ना-पेशी की तादाद तो क्रमशः 56 प्रतिशत और 51 प्रतिशत है. अलवर जेल से संबंधित पेशी के आंकड़ों से पता चलता है कि किसी कैदी की दो पेशियों के बीच पांच महीने तक का अंतराल है.
गौरतलब है कि अटेंडेंस ऑफ प्रिजनर्स इन कोर्ट एक्ट तथा क्रिमिनल प्रासिज्योर कोड में है कि यदि कैदी बीमार या बहुत अशक्त ना हो, उसकी पेशी से विधि-व्यवस्था के बिगड़ने या जनहित को हानि पहुंचने की आशंका ना हो, या फिर पेशी की समय के दौरान कैदी की सजा की अवधि पूरी ना होनेवाली हो या फिर एक ही समय में उसकी मौजूदगी अलग-अलग मामलों में जरूरी ना हो, तो उसे निश्चित ही कोर्ट में पेश (सशरीर) किया जाना चाहिए.
सीएचआरआइ का अध्ययन सिर्फ राजस्थान की जेलों तक सीमित है, तो भी विचाराधीन कैदियों की स्थिति को लेकर यह अध्ययन महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूरे देश में एक अजीब किस्म की चुप्पी का माहौल है और संकेत करता है कि शेष प्रदेशों में विचाराधीन कैदियों की स्थिति इससे बहुत अलग नहीं हो सकती.