तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद सामाजिक सौहार्द भारतीय जन-जीवन का एक विशिष्ट पहलू है. दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के दादरी के बिसाहड़ा गांव में 28 सितंबर को एक व्यक्ति को हिंसक भीड़ द्वारा मार देने के बाद ऐसा लगने लगा था कि इस गांव में दशकों से बहाल सामाजिक सद्भाव के ताने-बाने को फिर से जोड़ना संभव नहीं हो पायेगा.
इस आशंका को सियासी दलों और अन्य संगठनों ने भी बढ़ाने का काम किया था. लेकिन, इस हत्याकांड से सुन्न बिसाहड़ा गांव ने माहौल को पहले की तरह बनाने का निश्चय कर लिया है. रविवार, 11 अक्तूबर को बिसाहड़ा के मोहम्मद हकीमू की दो बेटियों- रेशम और जैतून- की डोली उठी है. इनकी शादी के खर्च और तैयारियों का जिम्मा गांव के हिंदू समुदाय ने उठाया है. मजदूरी कर परिवार चलानेवाले हकीमू हत्या की घटना के बाद बेटियों के भविष्य को लेकर चिंतित थे और उन्हें डर था कि तनावपूर्ण माहौल में गांव में बारात नहीं आ सकेगी. परंतु, दोनों समुदायों की परिपक्वता और एक-दूसरे पर भरोसे के कारण बारात भी आयी और डोली भी उठी. इसी कड़ी में यह भी जानना सुखद है कि दादरी इलाके के कई गांवों में लोग बैठक कर अमन-चैन बनाये रखने की कोशिश कर रहे हैं. इस भरोसे की बहाली का आधार लंबे समय तक दोनों समुदायों के साथ रहने का अनुभव है.
अगर हम अपने आस-पास देखें, तो ऐसे सद्भाव के अनेक उदाहरण मिल जाते हैं. अखबारों में एक समुदाय के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय की मदद करने की खबरें आती रहती हैं. बिसाहड़ा के अखलाक की हत्या सद्भाव और साहचर्य के बिखरने का उदाहरण है, तो रेशम और जैतून की डोली सुख-दुख में साथ रहने की परंपरा का विस्तार. हमारी राजनीति और हमारे समाज को इन दो घटनाओं में से अपने लिए आदर्श चुनना है. इस चयन पर ही एक देश के रूप में हमारे भविष्य का निर्धारण होगा.
एक घटना अशांति और तबाही की ओर ले जा सकती है, तो दूसरे की राह से अमन-चैन और विकास की मंजिल हासिल हो सकती है. अगर हमारे राजनेता अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार होंगे और हमारा समाज सचेत नागरिकों के समूह के रूप में अपनी भूमिका निभायेगा, तो फिर कोई अखलाक नहीं मरेगा. आशा है कि बिसाहड़ा की यह दूसरी घटना हमें बेहतर बनने के लिए प्रोत्साहित करेगी.