शिक्षा मानव विकास का द्योतक है. यह इनसान के जीवन स्तर को उन्नत बनाने के साथ ही उसे वैचारिक उत्कृष्टता भी प्रदान करती है ताकि वो बलवा-फसाद, ऊंच-नीच, धर्म-संप्रदाय जैसे विभेदकारी शब्दों से सदा के लिए तौबा कर लें और इस तरह एक ऐसा रंजमुक्त समाज निर्मित हो, जिसमें सदभाव बना रहे.
21वीं सदी का आरंभ भी शिक्षा के सर्वव्यापीकरण जैसी पहल से किया गया और आज लोग अतीत के मुकाबले खुद को ज्यादा जागरूक, शिक्षित और सभ्य होने का बोध कराते फिर रहे हैं. सोशल साइट्स व मीडिया के जरिये अपने तरीके से राजनीतिक कुव्यवस्थाओं के खिलाफ अपने उदगार भी व्यक्त करते आ रहे हैं. फिर ऐसा क्यों होता है कि परस्पर एकता व सदभाव की दुहाई देते-देते लोग एकाएक फसादी बन जाते हैं. वह कौन-सी विवशता है, जहां वो सियासी बाजीगरों के खतरनाक मंसूबों को पढ़ना नहीं चाहते और न ही उनके उद्वेलनकारी भाषणों पर अपने कान बंद करने की जहमत उठाते हैं.
अलबत्ता उनके पृथक्कारी मकड़जालों में पड़ कर अपने ही समाज की तारतम्यता का बंटाधार करने पर उतारू हो जाते हैं. कहते हैं – शिक्षा लोकाचार में परिवर्तन लाने हेतु सबसे बड़ी मार्गदर्शिका है और इस सदी में अगर सचमुच शिक्षा में नया आयाम गढ़ा गया है तो हमें हर हाल में स्वीकारना होगा कि पूर्व में गोधरा और अब मुजफ्फरनगर के दंगे हमारी समूल शिक्षा और इसके समस्त प्रतिमानों पर एक काला धब्बा है. लिहाजा, शिक्षित होकर भी हम आज दिग्भ्रमित हैं. तथ्यों को परखने का हमें समुचित ज्ञान नहीं. हम कल भी राजनीतिक प्रवंचना के शिकार थे और आज भी. हमें यह समझने की जरूरत है कि सर्वधर्म समभाव हमारी अमूल्य धरोहर ही नहीं बल्कि एक अद्वितीय दर्शन भी है.
रवींद्र पाठक, जमशेदपुर